एनसीपी का विभाजन- कितनी हकीकत, कितना फसाना

विधानसभा चुनाव के समय यही विधायक टिकट के लिए होड़ करेंगे और तब अपनी संभावनाओं का पुनर्मूल्यांकन करेंगे। जैसा कि एक अन्य राजनीतिक पर्यवेक्षक अभय देशपांडे कहते हैं, फिलहाल के लिए तो अजित और उनके समर्थकों ‘जिन्होंने कम-से-कम तीन पीढ़ियों के लिए खासी कमाई कर रखी है’, ने जेल से बाहर रहने के लिए सौदेबाजी कर ली है। लेकिन देशपांडे का कहना है कि अब मतदाताओं या यहां तक कि एनसीपी समर्थकों द्वारा उन्हें दोबारा स्वीकार किए जाने की संभावना नहीं है।

बेशक पवार सीनियर वास्तव में विभाजन से ‘बेखौफ’ हों, जैसा कि उनके जीवनी लेखक को लगता है, क्योंकि इतना तो वह जानते हैं कि जब वोट के लिए लोगों के पास जाने का समय आता है, तो उनके पास बेहतर कार्ड होते हैं। शरद पवार जानते हैं कि लोग उन्हें वोट देते हैं, न कि एनसीपी के किसी भी उम्मीदवार को।

उदाहरण के लिए, जब चार बार के एनसीपी सांसद उदयनराजे भोसले जो छत्रपति शिवाजी महाराज के 14वें वंशज थे, ने सतारा से लोकसभा चुनाव जीतने के कुछ सप्ताह बाद ही बीजेपी में शामिल होने के लिए इस्तीफा दे दिया तो अक्तूबर, 2019 में उपचुनाव तय हुआ और भोसले को टक्कर देने के लिए उपयुक्त उम्मीदवार की तलाश में पवार को खासी माथापच्ची करनी पड़ी। आखिरकार उन्होंने एक सेवानिवृत्त नौकरशाह का नाम फाइनल किया जिसका कोई राजनीतिक आधार नहीं था। फिर भी उस नौकरशाह ने भारी बहुमत से जीत हासिल की। प्रजा ने अपने प्रिय योद्धा राजा के वंशज की जगह शरद पवार को चुना।

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