Bihar Chief Minister Nitish Kumar tweets, “I am pleased to inform that under the Bihar Patrakar Pension Samman Yojana, instructions have been given to the department to provide a monthly pension of 15,000 rupees instead of 6,000 rupees to all eligible journalists. Additionally,… pic.twitter.com/oEquj8die6
— IANS (@ians_india) July 26, 2025
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहाँ पत्रकारों से निष्पक्षता, निर्भीकता और निरंतर जनसेवा की अपेक्षा की जाती है, वहाँ उनकी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा का सवाल लंबे समय से नेपथ्य में था। वर्षों तक खबरों के पीछे रहने वाला यह वर्ग, स्वयं खबर बनने के लिए न तो आकांक्षी रहा, न ही प्राथमिकता में आया। ऐसे में यह घोषणा एक संवेदनशील राजनीतिक नेतृत्व की झलक देती है, जो यह समझता है कि लोकतंत्र केवल चुनावों से नहीं, बल्कि सूचनाओं के निर्बाध प्रवाह और सच्चाई के निरंतर संप्रेषण से मजबूत होता है — और यह कार्य पत्रकार ही करते हैं।
यह निर्णय क्यों महत्वपूर्ण है?
देशभर में हजारों ऐसे पत्रकार हैं जिन्होंने पूरी उम्र ज़मीनी सच्चाइयों को उजागर करने, प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर रिपोर्ट करने, और जन-जन की आवाज़ बनने में बिता दी। लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद अधिकांश पत्रकार न किसी सरकारी सुविधा के पात्र होते हैं और न ही सामाजिक सुरक्षा की किसी प्रणाली के अंतर्गत आते हैं। ऐसी स्थिति में यह घोषणा उन बुज़ुर्ग पत्रकारों के लिए आर्थिक ही नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक बल का कार्य करेगी, जो अक्सर उम्र के इस पड़ाव में खुद को उपेक्षित पाते हैं।
आश्रित जीवनसाथी की पेंशन — एक सराहनीय संवेदना
एक और उल्लेखनीय निर्णय दिवंगत पत्रकारों की विधवाओं को जीवनभर ₹10,000 प्रतिमाह पेंशन देना है। यह शायद पहली बार है जब किसी राज्य ने पत्रकारों के आश्रितों के लिए इस प्रकार की व्यवस्था की है। यह उन परिवारों को आश्वस्त करता है कि उनका जीवनसाथी पत्रकार था — इसलिए अब राज्य उनके साथ है।
सवाल यह भी है कि बाकी राज्य क्या करेंगे?
बिहार ने जो कदम उठाया है, वह अन्य राज्यों के लिए दर्पण और दिशा दोनों हो सकता है। क्या मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, झारखंड जैसे बड़े राज्यों की सरकारें भी पत्रकारों के योगदान को इसी प्रकार स्वीकार करेंगी? क्या पत्रकारों के लिए एक राष्ट्रीय पेंशन नीति की आवश्यकता नहीं बनती?
कुछ सावधानियां भी जरूरी हैं
हालाँकि यह कदम सराहनीय है, लेकिन इसके क्रियान्वयन में पारदर्शिता, स्पष्ट पात्रता मानदंड और बिना भेदभाव के लाभ वितरण सुनिश्चित करना भी आवश्यक होगा। पत्रकारिता संगठनों को भी चाहिए कि वे इसे केवल ताली बजाने के अवसर के रूप में न लें, बल्कि एक स्थायी पत्रकार कल्याण ढाँचे की मांग जारी रखें।
पत्रकारिता केवल एक पेशा नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है — सत्य को शासन और समाज के बीच पुल की तरह रखने की जिम्मेदारी। जो लोग यह जिम्मेदारी उठाते हैं, उनके लिए जीवन की संध्या में यह आश्वासन कि राज्य उन्हें भूला नहीं है, अपने-आप में एक लोकतांत्रिक विजय है।
बिहार का यह कदम स्वागत योग्य है — बाकी राज्यों को अब चुप नहीं रहना चाहिए।
Denvapost संपादकीय टीम