पत्रकारों की पेंशन में वृद्धि: सिर्फ घोषणा नहीं, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को मान्यता

बिहार सरकार द्वारा पत्रकारों की पेंशन में की गई वृद्धि एक साधारण वित्तीय फैसला नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को दिए गए सम्मान का प्रतीक है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा सेवानिवृत्त पत्रकारों की मासिक पेंशन ₹6,000 से बढ़ाकर ₹15,000 और दिवंगत पत्रकारों की विधवाओं को ₹10,000 प्रतिमाह पेंशन देने की घोषणा एक नीतिगत संवेदनशीलता और राजकीय सहानुभूति की मिसाल बन सकती है।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहाँ पत्रकारों से निष्पक्षता, निर्भीकता और निरंतर जनसेवा की अपेक्षा की जाती है, वहाँ उनकी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा का सवाल लंबे समय से नेपथ्य में था। वर्षों तक खबरों के पीछे रहने वाला यह वर्ग, स्वयं खबर बनने के लिए न तो आकांक्षी रहा, न ही प्राथमिकता में आया। ऐसे में यह घोषणा एक संवेदनशील राजनीतिक नेतृत्व की झलक देती है, जो यह समझता है कि लोकतंत्र केवल चुनावों से नहीं, बल्कि सूचनाओं के निर्बाध प्रवाह और सच्चाई के निरंतर संप्रेषण से मजबूत होता है — और यह कार्य पत्रकार ही करते हैं।

यह निर्णय क्यों महत्वपूर्ण है?

देशभर में हजारों ऐसे पत्रकार हैं जिन्होंने पूरी उम्र ज़मीनी सच्चाइयों को उजागर करने, प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर रिपोर्ट करने, और जन-जन की आवाज़ बनने में बिता दी। लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद अधिकांश पत्रकार न किसी सरकारी सुविधा के पात्र होते हैं और न ही सामाजिक सुरक्षा की किसी प्रणाली के अंतर्गत आते हैं। ऐसी स्थिति में यह घोषणा उन बुज़ुर्ग पत्रकारों के लिए आर्थिक ही नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक बल का कार्य करेगी, जो अक्सर उम्र के इस पड़ाव में खुद को उपेक्षित पाते हैं।

आश्रित जीवनसाथी की पेंशन — एक सराहनीय संवेदना

एक और उल्लेखनीय निर्णय दिवंगत पत्रकारों की विधवाओं को जीवनभर ₹10,000 प्रतिमाह पेंशन देना है। यह शायद पहली बार है जब किसी राज्य ने पत्रकारों के आश्रितों के लिए इस प्रकार की व्यवस्था की है। यह उन परिवारों को आश्वस्त करता है कि उनका जीवनसाथी पत्रकार था — इसलिए अब राज्य उनके साथ है।

सवाल यह भी है कि बाकी राज्य क्या करेंगे?

बिहार ने जो कदम उठाया है, वह अन्य राज्यों के लिए दर्पण और दिशा दोनों हो सकता है। क्या मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, झारखंड जैसे बड़े राज्यों की सरकारें भी पत्रकारों के योगदान को इसी प्रकार स्वीकार करेंगी? क्या पत्रकारों के लिए एक राष्ट्रीय पेंशन नीति की आवश्यकता नहीं बनती?

कुछ सावधानियां भी जरूरी हैं

हालाँकि यह कदम सराहनीय है, लेकिन इसके क्रियान्वयन में पारदर्शिता, स्पष्ट पात्रता मानदंड और बिना भेदभाव के लाभ वितरण सुनिश्चित करना भी आवश्यक होगा। पत्रकारिता संगठनों को भी चाहिए कि वे इसे केवल ताली बजाने के अवसर के रूप में न लें, बल्कि एक स्थायी पत्रकार कल्याण ढाँचे की मांग जारी रखें।

पत्रकारिता केवल एक पेशा नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है — सत्य को शासन और समाज के बीच पुल की तरह रखने की जिम्मेदारी। जो लोग यह जिम्मेदारी उठाते हैं, उनके लिए जीवन की संध्या में यह आश्वासन कि राज्य उन्हें भूला नहीं है, अपने-आप में एक लोकतांत्रिक विजय है।

बिहार का यह कदम स्वागत योग्य है — बाकी राज्यों को अब चुप नहीं रहना चाहिए।

Denvapost संपादकीय टीम

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