केवल सरकारों के हाथों नहीं मरता लोकतंत्र, सार्वजनिक विवेक और जनमत की मौत होने पर भी मर जाता है

हमारे रक्षा प्रमुख रोबदार वर्दी और कंधों पर इस आकाशगंगा से अधिक सितारों के साथ संतुष्ट और मौन हैं। वे तब भी चुप रहे जब राजनीतिक कार्यपालिका ने उनकी दशकों पुरानी संस्कृति और लोकाचार को बदला, उनकी रेजिमेंटल परंपराओं, रैंकों, वर्दी, भर्ती के तरीके को बदला और संभवत: परिचालन और सामरिक मामलों में भी हस्तक्षेप किया। और अब फिजा में इस आशय की खबरें तैरने लगी हैं कि इनमें से कुछ सेवानिवृत्त लोग राम मंदिर के उद्घाटन में भी शामिल हो सकते हैं जबकि यह एक राजनीतिक-धार्मिक कार्यक्रम है।

जाहिर है, यह हमारे सशस्त्र बलों के गैर-राजनीतिक और धर्म-तटस्थ लोकाचार को और कमजोर कर रहा है। इसकी तुलना अमेरिकी ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष जनरल मिले द्वारा अपनाए गए रुख से करें जिन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए सेना का इस्तेमाल करने के डोनाल्ड ट्रंप के हर कदम का विरोध किया था। उन्होंने व्हाइट हाउस को अपनी आपत्तियां स्पष्ट कर दीं और जून, 2020 में लगभग इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने अपने स्टाफ से कहा था: अगर वे मेरा कोर्ट-मार्शल करना चाहते हैं या मुझे जेल में डालना चाहते हैं, तो ऐसा ही करें… मैं वहां से भी लड़ूंगा।’

असली लोकतंत्र, नकली लोकतंत्र के उलट अपने नागरिकों की भावनाओं का सम्मान करता है, उन्हें बल के प्रयोग से दबाता नहीं है। उसकी संस्थाएं और नागरिक समाज इतने मजबूत होते हैं कि अहम मौकों पर स्टैंड लेते हैं। हम अभी ‘नकली लोकतंत्र’ बने तो नहीं हैं लेकिन इतना जरूर है कि उस ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। लोकतंत्र केवल सरकारों के हाथों नहीं मरता: जब सार्वजनिक विवेक और जनमत की मौत हो जाती है, तो भी लोकतंत्र मर जाता है।

(लेखक अवय शुक्ला रियाटर्ड आईएएस अधिकारी हैं)

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