Makhannagar : दीपकशर्मा / भादों महिने की पूर्णिमा से अश्विन माह की अमावश्या के 16 दिन कौआ हर घर की छत का मेहमान बनता है। ये 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते है। कौए एवं पीपल को पितृ प्रतीक माना जाता है।इन दिनों कौए को खाना खिलाकर एवं पीपल को पानी पिलाकर पितरोंं को तृप्त किया जाता है।श्राद्ध में कौंए को छत पर जाकर अन्न जल देना बहुत पुण्य का कार्य माना जाता है। हमारे पितृ कौंए के रूप में आकर श्राद्ध का अन्न ग्रहण करते है। लेकिन अब यह दिखाई नही देते वही नगर के समाजसेवी वकील रामलाल साहू इन कौवों का बचाने का प्रयास करने के साथ ही कुनवा बढ़ाने मे भी मददगार साबित हो रहे है। पहले इनके यहां एक ही कौवा आता था, अब करीब दस कौंवे आने लगे है। जिन्हे यह प्रतिदिन खाना देते है।

‘कौआ’ के अस्तिव पर खतरा
वातावरण के दूषित होने से प्रकृति में हो रहे बदलाव के कारण सारस, गिद्ध और चील के बाद अब कौंआ का भी अस्तित्व खत्म होते जा रहा है। अतिथि के आगमन की सूचना देने वाले औैर अपने पितरों तक श्राद्ध को पहुंचाने वाले कौंए अब दिखाई की नही देते। अब घर के चांदे पर कोैंए की कांव-कांव की आवाज भी सुनाई नही देती। एक दशक पहलें कौैंए आकर अपने पूर्वजों को दिए जाने वाला भोजन चुग जाते थे। ऐसी मान्यता है कि कौंए ही पित्रों तक श्राद्ध पहुंचाते है।
शास्त्री महेश व्यास का कहना है कि कुछ साल पहले गांव से लेकर शहरों तक झुण्ड के झुण्ड दिखाई देते थे। लेकिन अब ये धीरे धीरे विलुप्त होते जा रहे है। विशेषज्ञों का मानना है कि कौवों की प्रजाति प्रदुषण के कारण तेजी से घट रही हैं। वातावरण जैसे जैसे प्रदुषण बढ़ रहा है। वैसे ही सारस, गिद्ध औेर चील की रह इनकी प्रजातियां भी विलुप्त हो रही है।

इस बारे मेंं समाजसेवी वकील रामलाल साहू का कहना है कि मेरे यहां विगत कई वर्षो से एक कौवा आ रहा है जिसका एक पेर भी नही है। जब मैने उस देखा तो मन मे बिचार आया कि हमारे आसपास तो आजकल कौंए दिखाई ही नही देते दिखते भी तो कभी कभी। फिर मैने उसे खाना देना शुरू किया और वह प्रतिदिन घर आने लगा। अब हम श्राद्ध पर ही नही बल्कि उसे बारह महीने खाना देते है। अब उस कौंंवे ने अपना कुनवा बढ़ लिया अच्छा लगता हैं, इस विलुप्त होती प्रजाति को बचाने का एक छोटा सा प्रयास है हमारा,उनका कुनवा बढ़ने के बाद हमने घर की छत पर उनके खाने की व्यवस्था की है।