बिहार में कांग्रेस को अपनी ज़मीन गँवाए और जनता दल के हाथों पराजित हुए 35 साल हो चुके हैं। 1990 के विधानसभा चुनावों के बाद से राज्य की राजनीति पर जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल का दबदबा रहा। कांग्रेस तब से ज्यादातर भाजपा-विरोधी गठबंधनों में सहायक भूमिका तक सीमित रही है। 2020 में पार्टी ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा और सिर्फ़ 19 जीत पाई, लगभग 27% स्ट्राइक रेट के साथ।
राहुल गांधी की पदयात्रा : नया उत्साह
इस बार कांग्रेस की उम्मीदें राहुल गांधी की ‘मतदाता अधिकार यात्रा’ पर टिकी हैं, जो 1 सितंबर को संपन्न हुई।
14 दिनों में 25 ज़िलों और 110 विधानसभा क्षेत्रों की 1,300 किमी की पदयात्रा।
बड़ी रैलियों में कांग्रेस का झंडा राजद और अन्य सहयोगियों के साथ बराबरी से लहराता दिखा।
अंतिम रैली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, झामुमो प्रमुख हेमंत सोरेन, शिवसेना (यूबीटी) के संजय राउत, वीआईपी के मुकेश साहनी और सीपीआई (एम-एल) के दीपांकर भट्टाचार्य जैसे नेता मौजूद रहे।
यहाँ तक कि तृणमूल कांग्रेस, जो अक्सर कांग्रेस से दूरी बनाए रखती है, ने भी सांसद यूसुफ पठान को भेजा। यह भारतीय ब्लॉक की एकजुटता का संकेत था।
भीड़ और कार्यकर्ताओं में नया जोश
यात्रा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं में वर्षों बाद ऊर्जा भरी।
भागलपुर के सुल्तानगंज में कांग्रेस झंडों की संख्या राजद से भी अधिक दिखी।
स्थानीय नेता ललन कुमार ने राहुल का स्वागत जेसीबी मशीन से पुष्पवर्षा कर किया, जो कार्यकर्ताओं में नए उत्साह का प्रतीक था।
ग्रामीण इलाकों से लेकर छोटे कस्बों तक बड़ी संख्या में महिलाएँ, छात्र और किसान भीड़ में नज़र आए।
भाषण और प्रतीकात्मकता
राहुल गांधी ने यात्रा का समापन एक तीखे भाषण से किया —
नारा दिया: “वोट चोर, गद्दी छोड़”।
मतदाताओं को चेताया कि वोट चोरी का मतलब आरक्षण, नौकरी और शिक्षा जैसे अधिकारों का हनन है।
महात्मा गांधी की हत्या के पीछे की ताकतों पर आरोप लगाया कि वही अब संविधान को नष्ट करना चाहती हैं।
तुलना की: “अगर कर्नाटक का मतदाता सूची विवाद एक परमाणु बम था, तो हाइड्रोजन बम अभी आना बाकी है।”
तेजस्वी यादव ने भी नीतीश सरकार की योजनाओं को “राजद की कॉपी-पेस्ट” बताया और कहा — “बिहार गणतंत्र की राजधानी है। गुजरात के दो लोग लोकतंत्र की हत्या करना चाहते हैं, लेकिन जनता उनकी चाल समझ रही है।” उनका सीधा इशारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की ओर था।
गठबंधन राजनीति की सीमाएँ
कांग्रेस को यह यात्रा दिखाई देने लायक जगह तो दे गई, पर चुनौतियाँ अभी बरकरार हैं —
पार्टी के पास राजद जैसा मजबूत जाति-आधारित वोट बैंक नहीं है।
संगठनात्मक कमजोरी और आंतरिक खींचतान अब भी बाधा हैं।
सवर्ण वोट पूरी तरह भाजपा के साथ खड़ा है।
ओबीसी और ईबीसी तबकों में कांग्रेस की पैठ सीमित है।
2024 लोकसभा चुनाव में पार्टी ने नौ सीटों पर चुनाव लड़ा और तीन जीतीं — यह मामूली, पर सकारात्मक संकेत था।
निष्कर्ष : प्रतीक से नतीजों तक की चुनौती
‘मतदाता अधिकार यात्रा’ ने कांग्रेस को बिहार की राजनीति में फिर से चर्चा में ला खड़ा किया है।
कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा है।
गठबंधन के भीतर पार्टी की स्थिति मजबूत हुई है।
मीडिया और गाँव की चाय की दुकानों तक में अब कांग्रेस पर बहस हो रही है।
लेकिन सवाल अब भी वही है — क्या यह प्रतीकात्मक ऊर्जा सीटों में तब्दील हो पाएगी?
बिहार की गठबंधन राजनीति में छोटे बदलाव भी चुनाव परिणाम बदल सकते हैं। कांग्रेस के लिए यह यात्रा सिर्फ़ एक मार्च नहीं, बल्कि खोई ज़मीन वापस पाने का असली इम्तिहान है।