नई दिल्ली/सासाराम। बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारी ने जैसे-जैसे रफ्तार पकड़ी है, वैसे-वैसे राजनीतिक दलों ने अपने-अपने मुद्दे और नैरेटिव गढ़ने शुरू कर दिए हैं। इसी कड़ी में रविवार को कांग्रेस नेता और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने रोहतास जिले के सासाराम से 16 दिवसीय “वोट अधिकार यात्रा” का आगाज़ किया। इस यात्रा का मकसद मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) में हुई कथित गड़बड़ियों और “वोट चोरी” के आरोपों को जनता के बीच ले जाना है।
राहुल गांधी का कहना है कि यह लड़ाई सिर्फ़ चुनावी राजनीति नहीं बल्कि लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांत “एक व्यक्ति, एक वोट” की रक्षा के लिए है। उन्होंने यात्रा शुरू होने से एक दिन पहले कहा था— “सोलह दिन, 20 से ज़्यादा ज़िले, 1,300 किलोमीटर की दूरी। हम जनता के बीच आ रहे हैं संविधान और मताधिकार की रक्षा के लिए।”
सासाराम से शुरुआत: कांग्रेस की जड़ों को पुनर्जीवित करने का प्रयास
यात्रा की शुरुआत सासाराम से होना प्रतीकात्मक भी है और रणनीतिक भी। यह इलाका कांग्रेस का पारंपरिक गढ़ माना जाता रहा है। राहुल गांधी यहीं से यह संदेश देना चाहते हैं कि कांग्रेस अब बिहार में “सहायक दल” भर नहीं रहना चाहती, बल्कि केंद्र में खड़े होकर राजनीतिक एजेंडा तय करने की कोशिश कर रही है।
20 जिलों में पैठ और पटना में शक्ति प्रदर्शन
यह यात्रा 16 दिनों तक चलेगी और बिहार के 20 से अधिक जिलों से होकर गुज़रेगी। कुल 1,300 किलोमीटर की दूरी तय करने वाली यह पदयात्रा तीन दिनों—20, 25 और 31 अगस्त—को विश्राम लेगी। समापन 1 सितंबर को पटना के गांधी मैदान में एक विशाल रैली से होगा। यह रैली न केवल यात्रा का चरम बिंदु होगी बल्कि महागठबंधन (INDIA ब्लॉक) की एकजुटता और ताक़त का भी प्रदर्शन मानी जाएगी।
महागठबंधन की साझा ज़मीन
यात्रा को विपक्षी गठबंधन के कई अहम दलों का समर्थन हासिल है।
राजद के नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव इसमें राहुल गांधी के साथ होंगे।
भाकपा (माले) लिबरेशन के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य और सांसद राजा राम काराकाट भी इसमें शामिल होंगे।
सीपीएम की वरिष्ठ पदाधिकारी सुभाषिनी अली और सीपीआई के प्रतिनिधि भी भाग लेंगे।
इस बहुदलीय भागीदारी से महागठबंधन यह संदेश देना चाहता है कि यह केवल कांग्रेस की पहल नहीं बल्कि विपक्ष की साझा लड़ाई है।
चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट की पृष्ठभूमि
कांग्रेस और उसके सहयोगियों का आरोप है कि SIR के बहाने भाजपा ने लाखों गरीबों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को मतदाता सूची से बाहर किया। कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने कहा कि “जनता और सामाजिक संगठनों के दबाव तथा सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही चुनाव आयोग को अपनी नीति में सुधार करना पड़ा।”
यहां कांग्रेस खुद को लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षक और भाजपा को “वोट चोरी” के आरोपी के रूप में पेश कर रही है।
चुनावी गणित पर असर?
विश्लेषकों के मुताबिक, इस यात्रा के कई संभावित राजनीतिक निहितार्थ हैं:
1. बिहार चुनाव की प्रस्तावना – यात्रा को विधानसभा चुनाव से पहले विपक्षी एकजुटता और जनसंपर्क का पहला बड़ा अभियान माना जा रहा है।
2. सामाजिक न्याय का नया संस्करण – दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और गरीब तबकों पर केंद्रित यह नैरेटिव महागठबंधन की पारंपरिक राजनीति को नए रूप में सामने लाता है।
3. कांग्रेस की भूमिका – पिछली बार महागठबंधन में कांग्रेस “जूनियर पार्टनर” की भूमिका में थी। यह यात्रा राहुल गांधी को केंद्र में लाकर पार्टी को निर्णायक स्थिति में लाने की कोशिश है।
4. भाजपा पर दबाव – भाजपा को मतदाता सूची और चुनावी पारदर्शिता के मुद्दे पर लगातार जवाब देना पड़ सकता है।
जनता का मूड और चुनौतियाँ
हालांकि यात्रा का उद्देश्य जनांदोलन खड़ा करना है, लेकिन इसकी सफलता इस पर निर्भर करेगी कि ग्रामीण और शहरी मतदाता इसे किस नज़र से देखते हैं। क्या लोग इसे वाक़ई अपने मताधिकार की रक्षा की लड़ाई मानेंगे या इसे केवल चुनावी रणनीति समझकर नज़रअंदाज़ कर देंगे?
राहुल गांधी की “वोट अधिकार यात्रा” विपक्ष के लिए एक साहसिक दांव है। यह यात्रा उन्हें बिहार की राजनीति में फिर से प्रासंगिक बना सकती है और महागठबंधन को एक नया नैरेटिव दे सकती है। लेकिन असली परीक्षा 1 सितंबर को पटना के गांधी मैदान में होगी—जहां यह तय होगा कि यह यात्रा वाकई जनता के बीच आंदोलन बन पाई या केवल चुनावी एजेंडा तक सीमित रह गई।