जीएसटी काउंसिल की 56वीं बैठक में दवाओं, मेडिकल उपकरणों और बीमा पर कर घटाना निश्चित रूप से स्वागतयोग्य है। इससे मरीजों और उपभोक्ताओं को कुछ राहत मिलेगी। लेकिन इस राहत के पीछे छुपा सच यह है कि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था अब भी गहरे संकट में है, और टैक्स में कटौती जैसी घोषणाएँ केवल सतही उपचार हैं।
बीमा पर 18% जीएसटी हटाना ऐतिहासिक कदम कहा जा रहा है। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि सरकार ने खुद स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च को लगातार कमतर रखा है। देश के जीडीपी का 2% से भी कम हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है। नतीजा यह है कि आम नागरिक आज भी अपनी जेब से इलाज का 60% से अधिक खर्च करता है। सवाल यह है कि अगर सरकार बीमा को सस्ता करके लोगों को निजी कंपनियों की तरफ धकेल रही है, तो क्या यह असल में सार्वजनिक स्वास्थ्य से पल्ला झाड़ने की रणनीति नहीं है?

दवाओं, ग्लूकोमीटर, टेस्ट किट्स और ऑक्सीजन पर जीएसटी घटाना राहत तो है, लेकिन कोरोना काल में हमने देखा कि टैक्स दरें नहीं, बल्कि काला बाज़ारी और निजी कंपनियों की मुनाफाखोरी मरीजों पर सबसे बड़ा बोझ बनी। आज भी बड़ी फार्मा कंपनियाँ दवाओं की कीमतें मनमाने तरीके से तय करती हैं। सरकार की जिम्मेदारी केवल टैक्स कम करने तक सीमित नहीं रह सकती, उसे बाज़ार पर सख्त नियंत्रण और पारदर्शिता भी लानी होगी।

राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह फैसला ऐसे समय लिया गया है जब महँगाई, बेरोज़गारी और स्वास्थ्य खर्च जनता की सबसे बड़ी चिंता हैं। जीएसटी दरों में कटौती की घोषणा सुर्खियाँ तो बटोर लेती है, पर असली सवाल यह है कि क्या इससे गाँव-गाँव तक डॉक्टर, दवाइयाँ और अस्पताल पहुँचेंगे? ग्रामीण भारत अब भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बदहाली से जूझ रहा है। शहरी गरीबों के लिए सरकारी अस्पतालों में न दवा है, न बेड। ऐसे में टैक्स राहत को “बड़ा सुधार” बताना जनता की आँखों में धूल झोंकने जैसा है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य बजट नहीं बढ़ाती,
निजी अस्पतालों और बीमा कंपनियों की मनमानी पर लगाम नहीं लगाती,
और ग्रामीण-शहरी स्वास्थ्य ढांचे की खाई नहीं पाटती,
तब तक टैक्स राहत महज़ राजनीतिक प्रचार का औज़ार बनी रहेगी।
स्वास्थ्य पर राजनीति करना आसान है, लेकिन जनता को सस्ती और सुलभ स्वास्थ्य सेवाएँ देना ही असली जिम्मेदारी है। टैक्स घटाना शुरुआत है, मगर असली इलाज अभी बाकी है।