Settle case out of court: मानहानि, माफ़ी और मर्यादा: जब अदालत ने कहा – “पहले से ही भरी हुई हैं…”

Settle case out of court: HC to Puri, Gokhale
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नई दिल्ली: जब देश की न्यायिक व्यवस्था पहले से ही लाखों मामलों के बोझ से जूझ रही हो, तब अदालतों की अपेक्षा यही होती है कि छोटे और व्यक्तिगत टकराव आपसी बातचीत से सुलझें। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 18 जुलाई को इसी भाव को आगे बढ़ाते हुए एक उल्लेखनीय टिप्पणी की — “अदालतें पहले से ही भरी हुई हैं।” यह टिप्पणी तब आई, जब पूर्व राजनयिक लक्ष्मी पुरी और तृणमूल कांग्रेस (TMC) सांसद साकेत गोखले के बीच चले आ रहे मानहानि विवाद की सुनवाई हो रही थी।

विवाद की पृष्ठभूमि

यह विवाद जून 2021 में शुरू हुआ, जब सांसद साकेत गोखले ने ट्विटर पर लक्ष्मी पुरी के खिलाफ कुछ कथित रूप से अपमानजनक टिप्पणियाँ कीं। गोखले ने पुरी पर विदेश में संपत्ति खरीद में अनियमितताओं के आरोप लगाए। लक्ष्मी पुरी, जो एक सम्मानित सेवानिवृत्त भारतीय विदेश सेवा अधिकारी हैं और पूर्व केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी की पत्नी हैं, ने इन ट्वीट्स को अपनी सार्वजनिक छवि पर हमला मानते हुए गोखले पर मानहानि का मुकदमा ठोंक दिया।

न्यायालय की प्रतिक्रिया

इस मामले में पहले ही एकल न्यायाधीश गोखले को पुरी के खिलाफ सोशल मीडिया या किसी भी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर कोई भी सामग्री प्रकाशित करने से रोक चुके हैं। साथ ही, उन्हें ₹50 लाख का हर्जाना भरने और सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगने का आदेश भी दिया गया था।

अब जब मामला अपील में उच्च न्यायालय की खंडपीठ के सामने आया, तो न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और हरीश वैद्यनाथन शंकर की पीठ ने आपसी समाधान की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए कहा:

“आप सार्वजनिक जीवन में हैं, सम्मानित सार्वजनिक हस्तियाँ। दोनों पक्ष एक साथ बैठकर विवाद को सुलझाने का प्रयास कर सकते हैं।”

पीठ ने यह भी जोड़ा कि इस तरह के मामलों को अदालत में घसीटने से न्यायिक व्यवस्था पर अनावश्यक दबाव पड़ता है। अदालत ने दोनों पक्षों के वरिष्ठ अधिवक्ताओं — मनिंदर सिंह (पुरी की ओर से) और अमित सिब्बल (गोखले की ओर से) — से कहा कि वे अपने मुवक्किलों से बात करके अदालत के सुलह प्रस्ताव पर विचार करें।

राजनीति, सोशल मीडिया और सीमाएं

यह मामला उस बढ़ती प्रवृत्ति का उदाहरण भी है, जिसमें सोशल मीडिया मंच राजनीतिक व वैचारिक टकराव का अखाड़ा बनते जा रहे हैं। आलोचना और आरोप-प्रत्यारोप, जो पहले संसद या प्रेस में होते थे, अब सीधे आम जनता के मोबाइल स्क्रीन पर पहुँच जाते हैं — तात्कालिक और व्यापक प्रभाव के साथ।

पर क्या हर आलोचना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आती है? और क्या कोई सांसद या कार्यकर्ता सार्वजनिक पद पर बैठे व्यक्ति पर आरोप लगाते समय तथ्यों की पुष्टि की ज़िम्मेदारी से मुक्त हो सकता है?

अदालत की सलाह का महत्व

दिल्ली उच्च न्यायालय की टिप्पणी न सिर्फ़ इस मामले के समाधान के लिए प्रासंगिक है, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक संदेश भी है — कि सार्वजनिक जीवन में शिष्टाचार, मर्यादा और वैचारिक विरोध के बीच संतुलन आवश्यक है।

यह कहना कि “अदालतें पहले से ही भरी हुई हैं”, दरअसल एक न्यायिक चेतावनी है। हर विवाद को अदालत तक खींचने की प्रवृत्ति न्याय की गति को बाधित करती है, और इसीलिए सम्मानित नागरिकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे विवादों को पहले संवाद और सुलह से हल करने की कोशिश करें।

साकेत गोखले द्वारा माफ़ी माँग लेना और न्यायालय का दोनों पक्षों को साथ बैठकर समाधान निकालने का सुझाव देना — यह भारतीय लोकतंत्र और न्याय प्रणाली की परिपक्वता का संकेत भी है। अब यह दोनों पक्षों पर है कि वे विवाद की गरिमा बनाए रखते हुए एक ऐसा रास्ता निकालें जो न केवल उनकी प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखे, बल्कि समाज को भी एक स्वस्थ उदाहरण दे।

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