संसद में सीआईएसएफ की तैनाती पर बवाल: लोकतंत्र की सुरक्षा या विरोध की आवाज़ पर पहरा?

'No MPs will be stopped from speaking': Kiren Rijiju defends CISF deployment in Rajya Sabha's well; dismisses opposition concernsनई दिल्ली। राज्यसभा में सीआईएसएफ जवानों की तैनाती को लेकर शुक्रवार को सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने आ गए। जहां कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस कदम को “लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत” बताया, वहीं संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने इसे सुरक्षा के लिहाज से “आवश्यक और तर्कसंगत” बताया।

विपक्ष का विरोध: “लोकतंत्र का काला दिन”

विपक्ष के नेता खड़गे ने उपसभापति को पत्र लिखकर स्पष्ट किया कि सीआईएसएफ की तैनाती विपक्षी आवाज़ों को दबाने का प्रयास है।
कांग्रेस सांसद प्रमोद तिवारी ने तो इसे “भारतीय लोकतंत्र का काला दिन” करार दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि महिला सांसदों को पुरुष सीआईएसएफ कर्मियों द्वारा रोका गया, जो संसदीय मर्यादा और महिला गरिमा दोनों का उल्लंघन है।

सरकार की सफाई: “सुरक्षा और मर्यादा के लिए जरूरी”

वहीं किरेन रिजिजू ने तर्क दिया कि यह कदम सांसदों की सुरक्षा और सदन की मर्यादा बनाए रखने के लिए उठाया गया है।
उन्होंने कहा, “कई बार सांसद सत्ता पक्ष की बेंचों पर चढ़ जाते हैं, वेल में आकर आक्रामक व्यवहार करते हैं। किसी सांसद को बोलने से नहीं रोका जाएगा, लेकिन विघटनकारी व्यवहार की स्थिति में सुरक्षा बलों को तैनात रहना ज़रूरी है।”

मुख्य सवाल: सुरक्षा बनाम स्वतंत्रता

इस पूरे घटनाक्रम में कुछ अहम प्रश्न उठते हैं:

1. क्या सीआईएसएफ जैसी अर्धसैनिक बल की मौजूदगी संसद की स्वायत्तता को प्रभावित करती है?

2. क्या महिला सांसदों को पुरुष सुरक्षा कर्मियों द्वारा रोका जाना मर्यादा की दृष्टि से उचित है?

3. क्या सरकार विरोध की आवाज़ को सुरक्षा के नाम पर कुचल रही है?

4. क्या यह एक खतरनाक परंपरा की शुरुआत है — विरोध का जवाब सैन्य तैनाती से?

लोकतांत्रिक मूल्यों पर संभावित असर

संसद, बहस और असहमति का मंच है।
यदि विपक्ष को वेल में उतरकर जनहित के मुद्दे उठाने पर “आक्रामक” करार दिया जाता है, और उसका जवाब सुरक्षा बलों की तैनाती होता है, तो यह लोकतंत्र की जीवंतता को कमजोर कर सकता है।

संतुलन की जरूरत

सदन में अनुशासन ज़रूरी है, लेकिन वह अनुशासन लोकतांत्रिक सहमति और प्रक्रिया से संचालित होना चाहिए, न कि बल-प्रदर्शन से।
जरूरत इस बात की है कि असहमति को दुश्मनी न समझा जाए, और विपक्ष की आवाज़ को सुरक्षा के नाम पर दबाने की प्रवृत्ति बंद हो।

संसद में सीआईएसएफ की तैनाती, केवल एक सुरक्षा मुद्दा नहीं है। यह एक राजनीतिक और संस्थागत विमर्श का विषय है — जो तय करेगा कि आने वाले वर्षों में भारत का लोकतंत्र कितना सहिष्णु और संवादोन्मुख रहेगा।

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