एक तरफ सरकार किसानों की आय दोगुनी करने की बात करती है, तो दूसरी तरफ ज़मीनी हकीकत यह है कि जिले के करीब 13 हजार से ज्यादा किसान अपनी उपज बेचने के लिए स्लॉट बुकिंग तक नहीं कर पा रहे हैं। जिनकी मूंग खलिहानों में सड़ रही है, वे केवल एक सवाल पूछ रहे हैं — “हम कब बेच पाएंगे अपनी फसल?” और जवाब में मिल रहा है — “पता नहीं।”
किसान कामता प्रसाद दुबे जैसे न जाने कितने किसान हैं, जो 20-30 क्विंटल मूंग लेकर समिति के चक्कर काट रहे हैं। न स्लॉट बुकिंग हो रही है, न अफसरों के पास कोई स्पष्ट उत्तर। किसानों की आवाज़ प्रशासन की फाइलों और तकनीकी बहानों में दबकर रह गई है।
राजीव यादव (ADA) का बयान तो और भी निराशाजनक है। उनका कहना है कि “स्लॉट बुकिंग तो होगी लेकिन कब होगी, यह नहीं बता सकते।” वजह — टेक्निकल समस्या। सिस्टम में ‘स्टेक’ खाली नहीं दिख रहे हैं।
अब सवाल यह है कि जब हज़ारों किसान अपनी उपज लेकर तैयार हैं, सहकारी समिति में पहुंचने को बेताब हैं, तब सरकार का तकनीक के नाम पर हाथ खड़े कर देना क्या किसानों के साथ अन्याय नहीं?
क्या यह वही ‘डिजिटल इंडिया’ है, जिसकी दुहाई हर मंच से दी जाती है?
क्या ये वही ‘स्मार्ट एग्रीकल्चर सिस्टम’ है, जिसके लिए करोड़ों खर्च हो रहे हैं?
या फिर यह उस तंत्र की सच्चाई है, जो हर सीजन में किसानों की उम्मीदों का गला घोंट देता है?
प्रशासन कहता है – “समस्या तकनीकी है।”
किसान पूछते हैं – “तो समाधान कब आएगा?”
प्रशासन कहता है – “कुछ कह नहीं सकते।”
किसान कहते हैं – “तो हमें मूंग सड़ने दें?”
कितनी विडंबना है कि किसान जो साल भर मेहनत कर अन्न पैदा करता है, उसे अपना ही माल बेचने के लिए ‘स्लॉट’ की भीख मांगनी पड़ रही है और अफसर हैं कि बस इतना कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं – “जैसे ही तकनीकी समस्या हल होगी, प्रक्रिया शुरू कर देंगे।”
सरकार और प्रशासन को यह समझना होगा कि यह महज ‘तकनीकी समस्या’ नहीं, यह विश्वास की गिरती हुई दीवार है। अगर समय रहते समाधान नहीं निकाला गया, तो किसान सिर्फ मूंग नहीं सड़ाएगा, वह अपनी उम्मीदें और भरोसा भी जला देगा।