NEW DELHI: Prime Minister
15 अगस्त की सुबह लाल किले की प्राचीर से जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को “गौरवशाली और स्वर्णिम अध्याय” कहकर नमन किया, तो यह केवल शताब्दी वर्ष की औपचारिक बधाई नहीं थी। यह बयान कई परतों में पढ़ा जाना चाहिए—इतिहास, विचारधारा, संगठनात्मक रिश्ते और सियासी गणित—सब इसमें घुले-मिले हैं।
प्रधानमंत्री ने गर्व से कहा—
“सौ साल पहले, आरएसएस की स्थापना हुई थी… स्वयंसेवकों ने मातृभूमि के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित किया है।”
यह वाक्य भले सीधा-सादा लगे, लेकिन इसमें एक स्पष्ट संदेश छुपा था—हाल में संघ और भाजपा के बीच “दूरी” की जो फुसफुसाहटें चल रही थीं, उनके लिए यह सीधा राजनीतिक उत्तर था: संघ और मैं—अलग नहीं हैं।
इतिहास और वर्तमान का संगम
1963 में गणतंत्र दिवस परेड में आरएसएस की भागीदारी को राष्ट्रीय मान्यता का प्रतीक माना गया था। अब, 2025 में, लाल किले से खुलेआम उसकी प्रशंसा—वह भी प्रधानमंत्री के मुंह से—संघ के लिए एक वैचारिक वैधता की पुनः पुष्टि है।
मोदी ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम लेकर अनुच्छेद 370 हटाने को उनकी “सच्ची श्रद्धांजलि” बताया। यह केवल ऐतिहासिक संदर्भ नहीं था, बल्कि संघ और भाजपा की वैचारिक एकजुटता की उद्घोषणा भी थी।
राजनीतिक टाइमिंग
संघ का शताब्दी वर्ष—संगठन के लिए ऊर्जा और विस्तार का समय।
चुनावी साल से पहले स्वयंसेवकों के मनोबल को ऊपर उठाने का अवसर।
विपक्ष को वैचारिक बहस के चक्रव्यूह में फंसाने की रणनीति।
विपक्षी नजरिया
विपक्ष के लिए यह मौका है कि वे इसे भाजपा के “संघ-निर्भर” चरित्र के सबूत के रूप में पेश करें। लेकिन लाल किले जैसे राष्ट्रीय मंच से यह प्रशंसा, आलोचना को भी एक तरह का राष्ट्रभक्ति बनाम विरोध फ्रेम में बदल सकती है—जहां संघ की आलोचना, परोक्ष रूप से राष्ट्रवाद पर सवाल की तरह पेश होगी।
यह भाषण सिर्फ आरएसएस के शताब्दी वर्ष की बधाई नहीं था। यह भाजपा-संघ रिश्ते की खुली पुष्टि, राजनीतिक रणनीति की चाल और वैचारिक आधार की पुनः स्थापना थी। लाल किले से गूंजा यह संदेश चुनावी मैदान में लंबे समय तक प्रतिध्वनित होता रहेगा—और शायद यही उद्देश्य भी था।