
न्यायालय का निर्णय: सातों आरोपी बरी
मुंबई की विशेष एनआईए अदालत ने 18 जुलाई, 2025 को दिए अपने विस्तृत फैसले में कहा कि:
अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर पाया कि बम मोटरसाइकिल में लगाया गया था या वह मोटरसाइकिल साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की थी।
लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित द्वारा आरडीएक्स लाने, बम बनाने या उसका इस्तेमाल करने के कोई ठोस सबूत नहीं मिले।
गैरकानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम (UAPA) के तहत दी गई मंजूरियाँ न्यायिक विवेक के बिना दी गईं और दोषपूर्ण पाई गईं।
अभिनव भारत संगठन की बैठकों और साजिश की पुष्टि करने वाले साक्ष्य, गवाह या ऑडियो रिकॉर्डिंग स्वीकार्य नहीं मानी गईं।
अभियोजन की कमियाँ और जाँच की आलोचना
1. 323 गवाहों में से 39 गवाह अपने बयान से पलटे – जिनमें से कई ने जांच एजेंसी एटीएस द्वारा दबाव डालने की बात कही।
2. घटनास्थल की उचित घेराबंदी नहीं हुई, जिससे साक्ष्य दूषित हो गए।
3. कोई फिंगरप्रिंट, डीएनए या अन्य वैज्ञानिक प्रमाण एकत्र नहीं किया गया – यानि फॉरेंसिक स्तर पर गंभीर चूकें।
4. नार्को टेस्ट का रिकॉर्ड, मोबाइल इंटरसेप्शन की अनुमति एवं रिकार्डिंग कानूनी मानकों के अनुरूप नहीं थी।
5. एटीएस पर सबूत गढ़ने और साजिश रचने का आरोप भी न्यायालय ने गंभीरता से लिया।
न्यायालय की टिप्पणी
“इस प्रकृति का अपराध दंडित नहीं हुआ है, लेकिन न्यायालय नैतिक विश्वास या संदेह के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहरा सकती।”
मुआवज़ा आदेश
मृतकों के परिजनों को ₹2 लाख प्रति परिवार
95 घायलों को ₹50,000 प्रति व्यक्ति
फरार आरोपी
रामजी कलसांगरा और संदीप डांगे के खिलाफ केस अभी भी लंबित है।
न्यायिक प्रक्रिया में देरी
अब तक इस केस की सुनवाई पाँच अलग-अलग न्यायाधीशों के अधीन हुई।
वर्तमान न्यायाधीश ए.के. लाहोटी का कार्यकाल बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस फैसले के लिए विशेष रूप से बढ़ाया।
यह फैसला क्या दर्शाता है?
1. जाँच की विश्वसनीयता पर सवाल – मालेगांव केस, जांच एजेंसी विशेषकर एटीएस और एनआईए की पेशेवर निष्पक्षता पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न छोड़ता है।
2. गवाहों का पलटना – या तो गवाहों को गलत तरीके से तैयार किया गया, या राजनीतिक/प्रशासनिक दबाव के तहत काम किया गया।
3. न्यायिक विवेक की भूमिका – न्यायाधीश ने भावनाओं की बजाय साक्ष्यों पर आधारित निर्णय दिया, जिससे न्याय की प्रक्रिया की मर्यादा बनी रही।
4. राजनीतिक विमर्श पर प्रभाव – इस फैसले से “भगवा आतंकवाद” की अवधारणा पर एक बार फिर बहस छिड़ सकती है। साथ ही, विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों इसे अपने-अपने हिसाब से पेश करेंगे।
यह केस भारतीय न्यायिक प्रणाली की जटिलता, जाँच एजेंसियों की विश्वसनीयता और आतंकवाद विरोधी कानूनों के प्रयोग में सावधानी की आवश्यकता को उजागर करता है। साथ ही, यह पीड़ितों और उनके परिवारों की उस पीड़ा को भी सामने लाता है, जिन्हें न्याय की प्रतीक्षा में वर्षों गुज़ारने पड़े।