भारतीय लोकतंत्र में आलोचना कोई नई बात नहीं, लेकिन जब वह देश की आर्थिक और कूटनीतिक स्थिति से जुड़ जाती है, तो उसे गंभीरता से सुना जाना चाहिए। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हालिया बयानों को आधार बनाकर केंद्र सरकार पर जो सवाल उठाए हैं, वे केवल राजनीतिक बयानबाज़ी नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आत्मनिरीक्षण का अवसर हैं।
जब ‘मृत अर्थव्यवस्था’ एक वैश्विक नेता की ज़ुबान पर हो
राहुल गांधी ने कहा, “भारतीय अर्थव्यवस्था मृत है और मोदी सरकार ने उसे मार डाला है।” उन्होंने यह टिप्पणी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के उस कथन के संदर्भ में की जिसमें ट्रंप ने भारत की आर्थिक स्थिति को “dead” बताया था।
भले ही ट्रंप की शैली और भाषा पर बहस हो सकती है, लेकिन सवाल यह है कि अगर कोई राष्ट्राध्यक्ष भारत के बारे में अपमानजनक टिप्पणी कर रहा है, तो भारत सरकार की ओर से प्रतिक्रिया का मौन क्यों है?
चुप्पी की यह रणनीति क्या मजबूरी है या फिर यह कूटनीति का एक नया मॉडल?
‘एक व्यक्ति की सरकार’ बनाम संस्थागत जवाबदेही
राहुल गांधी का यह आरोप कि मोदी सिर्फ एक व्यक्ति – अडानी – के लिए काम करते हैं, न सिर्फ़ एक राजनीतिक आक्षेप है, बल्कि यह देश की आर्थिक नीति पर प्रश्नचिह्न भी खड़ा करता है।
क्या भारत की आर्थिक दिशा वास्तव में कुछ कॉर्पोरेट घरानों की मर्जी पर केंद्रित हो चुकी है? क्या छोटे और मझोले उद्यम हाशिए पर धकेले जा रहे हैं? यदि ऐसा नहीं है, तो सरकार को इसके खंडन में ठोस आँकड़ों और तथ्यों के साथ सामने आना चाहिए – न कि केवल विरोधी स्वर को “दिशाहीन राजनीति” कहकर खारिज किया जाए।
विदेश नीति: जब दुनिया सुन रही हो, तो भारत क्यों चुप?
राहुल गांधी ने सही सवाल उठाया कि जब अमेरिका टैरिफ बढ़ा रहा है, चीन सीमा पर आक्रामक बना हुआ है, और पाकिस्तान को वैश्विक मंचों से राहत मिल रही है – तब भारत के प्रधानमंत्री इन विषयों पर संसद में स्पष्ट वक्तव्य देने से क्यों बचते हैं?
संसद कोई औपचारिकता नहीं, लोकतंत्र का सर्वोच्च मंच है। यदि प्रधानमंत्री वहाँ भी संवेदनशील मसलों पर मौन रहते हैं, तो यह लोकतांत्रिक अपारदर्शिता की चिंता पैदा करता है।
राजनीति नहीं, जवाब चाहिए
सरकार को यह समझना होगा कि राहुल गांधी के आरोपों को केवल “पराजित मानसिकता” कहकर नहीं निपटाया जा सकता।
जब अमेरिकी राष्ट्रपति भारत की संप्रभुता से जुड़े मुद्दों पर सीधा हस्तक्षेप करने का दावा करते हैं – जैसे युद्धविराम, विमान क्षति या टैरिफ समझौते – और प्रधानमंत्री चुप रहते हैं, तो यह मौन कूटनीतिक कमजोरी का प्रतीक बन सकता है।
यह सिर्फ़ विपक्ष का नहीं, हर जागरूक नागरिक का सवाल है – “सरकार जवाब क्यों नहीं देती?”
संवाद बनाम सन्नाटा
एक सशक्त लोकतंत्र की पहचान है – सवालों का उत्तर, बहस का सम्मान और आलोचना का उत्तरदायित्वपूर्ण खंडन। लेकिन जब देश की विदेश नीति, रक्षा नीति और आर्थिक नीति पर सवाल उठते हैं और सरकार मौन रह जाती है, तो सन्नाटा सिर्फ़ रणनीति नहीं, विश्वसनीयता की दरार भी बन सकता है।
भारत को यदि वैश्विक मंच पर नेतृत्व करना है, तो उसे अपने भीतर भी लोकतांत्रिक आत्मा को जीवित रखना होगा। और वह आत्मा सबसे पहले संसद और जनता के प्रति उत्तरदायित्व से ही पोषित होती है।