राजबाड़े के पीछे वर्तमान में मुस्लिम अनुयायियों की भीड़ देखने को मिल रही है, इमाम बाड़े में निर्मित होने वाले ताजिये के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने लोग आते हैं। मुस्लिम धर्म के नए साल की शुरुआत इसी माह से होती है। हजरत हुसैन की शहादत की याद में मोहर्रम मनाया जाता है। यह महीना त्याग और बलिदान का प्रतीक माना जाता है। भारत में मोहर्रम के दिन ताजिए निश्चित जगह से उठाकर उन्हें ठंडा किया जाता है। इतिहासकार मानते हैं कि देश में ताजियों का प्रचलन तैमूरलंग के शासनकाल में हुआ था।
इंदौर में 19वीं शताब्दी के आरंभ से होलकर महाराजा का ताजिया यानी सरकारी ताजिया इंदौर के राजवाड़े के समीप तंबू लगाकर तैयार किया जाता था। यशवंत राव होलकर प्रथम और तुकोजीराव द्वितीय की ताजियों के प्रति श्रद्धा थी, इसलिए सरकारी ताजिया राजवाड़ा के सात चक्कर लगाया करता था। यह परंपरा आज भी जारी है।
इमामबाड़े में बनता है सरकारी ताजिया
महाराजा तुकोजीराव होलकर द्वितीय के कार्यकाल में 1908 में राजबाड़े के समीप इमामबाड़ा का निर्माण करवाया गया था आज भी सरकारी ताजिया इमामबाड़ा में बनता है। होलकर महाराजा की ताजियों के प्रति श्रद्धा थी इसलिए वे ताजिए ठंडे करने कर्बला तक जाते थे। स्वतंत्रता से पहले होलकर राज्य के दो प्रमुख ताजिए निर्मित हुआ करते थे। कुछ छोटे ताजिए भी निर्मित होते थे, उन्हें बुराक भी कहा जाता है। इंदौर के विभिन्न मार्ग से ताजिये कर्बला जाते थे। रियासत की ओर से खासगी ताजिया उठा करता था, जिसका निर्माण राजवाड़ा के समीप इमामबाड़े में होता था। खासगी ट्रस्ट की ओर से उस दौर में ताजिए निर्माण के लिए अनुदान भी दिया जाता था, यह ताजिया सात मंजिल ऊंचा बनाया जाता था।
होलकर फौज का भी ताजिया निर्मित होता था
दूसरा प्रमुख ताजिया होलकर फौज का उठता था, इसका निर्माण किला मैदान में वर्तमान में यहां कन्या महाविद्यालय है, वहां बनता था। इस ताजिए की ऊंचाई सरकारी ताजिये से कुछ कम रहा करती थी। होलकर फौज का ताजिया किला मैदान से शंकरगंज जिंसी होते हुए राजवाड़ा पहुंचता था। यहां होलकर महाराजा और उनके मंत्री तथा गणमान्य नागरिक इस कार्यक्रम में शामिल होते थे। इन ताजियों के आगे होलकर राज्य का प्रतीक चिन्ह रहता था। उसके बाद ताजिये की सवारी के साथ होलकर महाराजा और फौज कर्बला जाती थी। प्रत्येक कमांडिंग ऑफिसर अपनी पलटन के साथ होता था। सेना के जनरल भी चलते थे। फौज के ताजिये के निर्माण के लिए प्रत्येक फौजी की तनख्वाह से एक निश्चित राशि की कटौती की जाती थी। ताजिए जिन रास्तों से होकर गुजरते थे उन मार्गों की साफ सफाई और सड़कों को पानी से उन्हें धोया जाता था।
लगती हैं मीठे पानी की सबीलें
इंदौर की मुस्लिम बस्तियों में मोहर्रम के दिनों में मीठे पानी की सबीलें लगती हैं। मातम भी मनाया जाता है। आज भी नगर में ताजिए राजवाड़ा और आसपास के प्रमुख मार्गों से होते हुए करीब दो किलोमीटर दूर कर्बला मैदान में पहुंचते हैं, जहां पर तीन दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता है। इसमें बड़ी संख्या में मुस्लिम समुदाय के लोग शिरकत करते हैं।