
जबलपुर।मध्यप्रदेश की राजनीति में एक बार फिर दल-बदल कानून को लेकर हलचल तेज हो गई है। बीना विधानसभा सीट से भाजपा विधायक निर्मला सप्रे (nirmala-sapre) की मुश्किलें बढ़ती नजर आ रही हैं। जबलपुर हाई कोर्ट ने उनके खिलाफ नोटिस जारी करते हुए जवाब तलब किया है। यह नोटिस नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनवाई के बाद जारी हुआ है, जिसमें सप्रे (nirmala-sapre) की विधायकी रद्द करने की मांग की गई है।
कांग्रेस छोड़कर BJP में शामिल हुईं सप्रे
निर्मला सप्रे (nirmala-sapre) ने कुछ महीने पहले कांग्रेस छोड़कर भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा था। वे मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की मौजूदगी में भाजपा की सदस्य बनीं थीं। इस कदम ने तत्कालीन कांग्रेस खेमे में हलचल मचा दी थी। उनके दल-बदल के बाद ही उमंग सिंघार ने विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष दल-बदल कानून (Anti-Defection Law) के तहत शिकायत दर्ज कराते हुए उनकी सदस्यता समाप्त करने की मांग की थी।
16 महीने बाद भी निर्णय नहीं, अब कोर्ट पहुँचा मामला
उमंग सिंघार की ओर से दायर याचिका में कहा गया है कि विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर को यह प्रकरण जल्द निपटाना चाहिए था, लेकिन 16 महीने बीत जाने के बाद भी अब तक कोई निर्णय नहीं हुआ।
याचिकाकर्ता का कहना है कि यह देरी संविधान की भावना और सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों के विपरीत है। इसी के चलते अब यह मामला जबलपुर हाई कोर्ट में पहुंचा, जहां अदालत ने प्रथम दृष्टया इसे गंभीर मानते हुए विधानसभा अध्यक्ष और विधायक निर्मला सप्रे (nirmala-sapre) दोनों को नोटिस जारी किया।
कोर्ट ने पूछा – “16 महीने में निर्णय क्यों नहीं?”
मुख्य न्यायाधीश संजीव सचदेवा और न्यायमूर्ति विनय सराफ की खंडपीठ ने सुनवाई के दौरान सवाल उठाया कि दल-बदल से जुड़ी याचिका पर इतनी लंबी अवधि तक निर्णय लंबित क्यों है?
अदालत ने कहा कि संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत ऐसी याचिकाओं का निपटारा “उचित समय सीमा” में होना चाहिए ताकि लोकतांत्रिक व्यवस्था प्रभावित न हो।
सुप्रीम कोर्ट के उदाहरणों का हवाला
सुनवाई के दौरान अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के दो अहम फैसलों का हवाला दिया —
- “पाडी कौशिक रेड्डी बनाम तेलंगाना राज्य”
- “केशम बनाम मणिपुर राज्य”
इन दोनों मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया था कि दल-बदल से संबंधित याचिकाओं का निराकरण तीन महीने के भीतर किया जाना चाहिए। हाई कोर्ट ने कहा कि यदि कोई विधायक किसी अन्य दल में शामिल हो जाता है, तो उसकी सदस्यता स्वतः समाप्त मानी जानी चाहिए, जब तक वह पुनः निर्वाचित नहीं हो जाता।
राज्य की ओर से महाधिवक्ता प्रशांत सिंह ने रखा पक्ष
राज्य की ओर से महाधिवक्ता प्रशांत सिंह ने अदालत के समक्ष पक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि यह मामला विधानसभा के अधिकार क्षेत्र में है और अध्यक्ष द्वारा प्रक्रिया के अनुसार कार्रवाई की जा रही है।
वहीं, याचिकाकर्ता उमंग सिंघार की ओर से अधिवक्ता विभोर खंडेलवाल और जयेश गुरनानी ने पैरवी की। उन्होंने कहा कि “अध्यक्ष का इतना लंबा विलंब संविधान के अनुच्छेद 212 और दल-बदल विरोधी कानून की आत्मा के विपरीत है।”
दल-बदल कानून: लोकतंत्र की मजबूती का आधार
भारत में दल-बदल विरोधी कानून 1985 में संविधान की दसवीं अनुसूची के रूप में लागू हुआ था। इसका उद्देश्य चुने हुए प्रतिनिधियों को दलगत अनुशासन और नैतिक जवाबदेही में रखना है। कानून के अनुसार, यदि कोई विधायक अपने दल की सदस्यता छोड़कर किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होता है या अनुशासनहीनता करता है, तो उसकी सदस्यता स्वतः समाप्त मानी जाती है। निर्मला सप्रे (nirmala-sapre) का कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होना इसी दायरे में आता है, जिस पर अब अदालत की सीधी निगरानी शुरू हो गई है।
राजनीतिक हलचल तेज
बीना क्षेत्र और प्रदेश की राजनीति में यह मामला तेजी से चर्चा में है। कांग्रेस इसे “लोकतांत्रिक मूल्यों की जीत का मामला” बता रही है, जबकि भाजपा इसे “राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित याचिका” कह रही है।
बीना से विधायक सप्रे (nirmala-sapre) के करीबी सूत्रों का कहना है कि “उन्होंने कांग्रेस से वैचारिक मतभेद के कारण त्यागपत्र दिया था, और भाजपा में शामिल होना उनका व्यक्तिगत निर्णय था।”
18 नवंबर को अगली सुनवाई
हाई कोर्ट ने इस मामले की अगली सुनवाई की तारीख 18 नवंबर 2025 निर्धारित की है। अदालत ने विधायक निर्मला सप्रे (nirmala-sapre) को निर्देश दिया है कि वे इस तारीख तक अपना जवाब दाखिल करें।
संभावना जताई जा रही है कि इस सुनवाई में अदालत यह भी तय कर सकती है कि अध्यक्ष को निर्णय लेने के लिए सीमा-निर्धारण (time-bound direction) दिया जाए।
कानूनी विशेषज्ञों की राय
संवैधानिक विशेषज्ञों का कहना है कि यह मामला न केवल दल-बदल कानून की व्यावहारिकता पर बल्कि विधानसभा अध्यक्ष की निष्पक्षता और जिम्मेदारी पर भी प्रश्न उठाता है।
सप्रे की स्थिति पर असर
यदि अदालत या अध्यक्ष द्वारा सप्रे (nirmala-sapre) की विधायकी समाप्त की जाती है, तो बीना विधानसभा सीट पर उपचुनाव की संभावना बन सकती है। भाजपा के लिए यह सीट महत्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि यह सागर संभाग में पार्टी का पारंपरिक गढ़ है। वहीं, कांग्रेस इसे “जनादेश की पुनर्स्थापना” के रूप में प्रस्तुत कर सकती है। फिलहाल सप्रे ने इस मामले पर कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया है।
बीना विधायक निर्मला सप्रे (nirmala-sapre) का यह प्रकरण मध्यप्रदेश की राजनीति में दल-बदल कानून की नई परीक्षा साबित हो सकता है। अदालत का सख्त रुख यह संकेत देता है कि अब विधानसभा अध्यक्षों की देरी या निष्क्रियता को न्यायपालिका हल्के में नहीं लेगी। 18 नवंबर की सुनवाई इस मामले में अगला बड़ा मोड़ हो सकती है, जिससे यह तय होगा कि निर्मला सप्रे अपनी विधायकी बचा पाएंगी या उपचुनाव की राह खुलेगी।