माखननगर (नर्मदापुरम)। “सोचिए, कैसा लगेगा जब आपको बताया जाए कि आप अब इस दुनिया में नहीं हैं?” ग्राम बागलखेड़ी के नरेश अहिरवाल की ज़िंदगी पिछले नौ महीनों से इसी अजीब सवाल में उलझी है। सरकारी रिकॉर्ड में उनकी मौत चार साल पहले दर्ज की जा चुकी है, पंचायत ने उनके नाम पर अन्त्येष्टि सहायता भी निकाल ली, और अब वे खुद को जिंदा साबित करने के लिए दफ्तर-दर-दफ्तर भटक रहे हैं।
कैसे हुआ खुलासा
23 नवंबर 2024 को नरेश के घर बेटे का जन्म हुआ। निजी अस्पताल ने शासकीय योजना का लाभ दिलाने के लिए संबल कार्ड मांगा। कार्ड की स्थिति चेक करने पर पता चला कि नरेश की मौत जुलाई 2020 में दर्ज है। इस खुलासे के बाद नरेश ने तत्काल CM हेल्पलाइन में शिकायत दर्ज कराई।
पीड़ित की आपबीती
नरेश ने denvapost को बताया कि “मैं चार साल से ज़िंदा हूँ, गाँव में सबके बीच घूम रहा हूँ, फिर भी सरकारी रिकॉर्ड में मैं मर चुका हूँ। अब अपने ही जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र के लिए चक्कर काट रहा हूँ। नौ महीने हो गए, कोई सुनवाई नहीं।”
प्रशासन की चुप्पी
जनपद पंचायत और ग्राम पंचायत के जिम्मेदार अधिकारी इस मामले में कैमरे के सामने कुछ भी कहने से बचते रहे। सूत्रों के मुताबिक, नरेश को मृत घोषित करने में पंचायत स्तर पर बड़ी लापरवाही हुई, जिससे अन्त्येष्टि सहायता राशि भी किसी ने हड़प ली।
कानूनी स्थिति
विनीत वर्मा एडवोकेट ने बताया कि भारत में गलत तरीके से मृत घोषित होने पर पीड़ित व्यक्ति को सिविल कोर्ट में आवेदन करना पड़ता है। जन्म-मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 के तहत संबंधित अधिकारी को रिकॉर्ड सुधारना होता है, लेकिन यह प्रक्रिया अक्सर वर्षों तक खिंच जाती है।
पुराने उदाहरण
लाल बिहारी “मृतक” (उत्तर प्रदेश): 18 साल तक आधिकारिक रूप से मृत रहे, अंत में न्याय मिला।
मध्य प्रदेश, 2022: एक किसान को ज़मीन विवाद में मृत घोषित कर दिया गया, कोर्ट ने हस्तक्षेप कर रिकॉर्ड सुधरवाया।
भ्रष्टाचार और लापरवाही का पैटर्न
ऐसे मामले प्रायः तीन कारणों से होते हैं—
1. भूमि या संपत्ति विवाद
2. पंचायत/रिकॉर्ड विभाग की लापरवाही
3. भ्रष्टाचार के जरिए सरकारी राशि हड़पना
नरेश का मामला भी इसी पैटर्न में फिट बैठता है—एक जिंदा व्यक्ति को ‘कागज़ों में मार’ दिया गया और अब उसे खुद को जिंदा साबित करने के लिए सरकारी गलियारों में चक्कर काटने पड़ रहे हैं।
इस तरह की घटनाएँ न सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही को उजागर करती हैं, बल्कि यह भी सवाल खड़ा करती हैं कि सरकारी रिकॉर्ड और योजनाओं की निगरानी कितनी कमजोर है।