चुनावी बिसात पर विपक्षी गठबंधन का बिखराव

अगर नैतिकता के प्रति आग्रही न बनें, तो अपनी सरकार को चुनौती के इरादे के साथ बने 28 विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ के अंतर्विरोधों के बीच ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2024 के लोकसभा चुनाव की जैसी बिसात बिछायी है, वह राजनीतिक प्रबंधन की मिसाल है. अपनी सरकार की ‘हैट्रिक’ में उन्हें जिन-जिन राज्यों में, जिन-जिन क्षत्रपों से मुश्किलें पेश आ सकती थीं, वहां ऐसी पेशबंदी की है कि चुनाव से पहले ही पासा पलटता दिख रहा है. बदलते परिदृश्य में, सात महीने पहले जोर-शोर के साथ बना ‘इंडिया’ बिखराव के कगार पर है. सूत्रधार कहे गये नीतीश कुमार फिर एनडीए में लौट गये हैं, तो जयंत चौधरी के भी पाला बदल में औपचारिक घोषणा ही शेष है. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है, तो आप ने भी पंजाब से दिल्ली तक कांग्रेस को ठेंगा दिखा दिया है.

अस्सी सीटों वाला उत्तर प्रदेश, 40 सीटों वाला बिहार, 48 सीटों वाला महाराष्ट्र और 28 सीटों वाला कर्नाटक भाजपा के प्रमुख शक्ति स्रोतों में रहे हैं. ‘इंडिया’ बनने के बाद चुनावी गणित गड़बड़ाता भी दिख रहा था. पर पिछले वर्ष के आखिर में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में कांगेस को जबरदस्त मात दे कर केंद्र में सरकार की ‘हैट्रिक’ का नारा देने के बाद से ही भाजपाई रणनीतिकार चुनावी बिसात बिछाने में जुटे हैं. चुनावी चुनौती पेश कर सकने वाले ‘इंडिया’ को तार-तार करने में भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी है. भाजपा ने संयोजक न बनाये जाने पर नीतीश की निराशा को भांपा, लालू परिवार से उनके संशय को हवा दी, कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिया और एक-दूसरे के लिए बंद बताये जानेवाले खिड़की-दरवाजे सब खुल गये. बिहार का चुनावी समीकरण फिर भाजपा के पक्ष में झुक गया है. अलग चुनाव लड़ने की घोषणा करने वाली मायावती के मन में जो भी हो, उससे अंतत: लाभ भाजपा को ही होगा. फिर भी सपा-कांग्रेस-रालोद मिलकर चुनौती दे सकते थे. इसलिए भाजपा ने उत्तर प्रदेश में भी ‘इंडिया’ के अंतर्विरोधों का लाभ उठाया. रालोद को दी सात सीटों में से भी तीन पर सपा और एक पर कांग्रेस उम्मीदवार उतारने का दबाव अखिलेश ने जयंत पर बनाया, जिसके बीच भाजपा ने अपनी बिसात की जगह बना ली. लगभग अखिलेश जितनी ही लोकसभा सीटें तथा उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार में हिस्सेदारी के वादे के अतिरिक्त, दादा चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न से भी नवाज दिया. अब कांग्रेस-सपा के लिए भाजपा को चुनौती दे पाना संभव नहीं होगा.

बेशक 14 लोकसभा सीटों वाले झारखंड में भाजपा का दांव फिलहाल उलटा पड़ गया, पर 48 लोकसभा सीटों वाले महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी में विभाजन के बाद कांग्रेस में जारी सेंधमारी भी उसी चुनावी बिसात का हिस्सा है. पूर्व मंत्री मिलिंद देवड़ा से शुरू यह सेंधमारी पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण पर ही नहीं रुकेगी. शिवसेना और एनसीपी में विभाजन के बाद अचानक बड़े भाई वाली मुद्रा में आ गयी कांग्रेस अगर नहीं संभली, तो महाराष्ट्र में भी भाजपा को चुनावी समीकरण ठीक करने में अधिक मुश्किल नहीं आयेगी. पिछले वर्ष कर्नाटक की सत्ता गंवाने के बाद वहां भी भाजपा ने नये सिरे से चुनावी बिसात बिछायी है. पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के जनता दल सेक्युलर से गठबंधन के अतिरिक्त, बीएस येदियुरप्पा के बेटे बिजयेंद्र को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार की घर वापसी हो गयी है. क्रमश: 13 और सात लोकसभा सीटों वाले पंजाब और दिल्ली में सत्तारूढ़ आप द्वारा अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा के पीछे भाजपा की भूमिका देखना शायद जल्दबाजी हो, पर कांग्रेस को लगने वाला हर झटका उसके लिए राहतकारी तो होता ही है. दक्षिण भारत के दो बड़े राज्य- आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु- अभी तक भाजपा की पहुंच से बाहर रहे हैं. इन राज्यों में चुनावी बिसात भाजपा के लिए आसान नहीं. पर पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन को भारत रत्न की घोषणा से उसने कोशिश अवश्य की है. राव के जरिये भाजपा के लिए आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ वाइएसआरसीपी या मुख्य विपक्षी दल टीडीपी से गठबंधन का मार्ग प्रशस्त हो सकता है, तो स्वामीनाथन के जरिये उसे तमिलनाडु में छोटे दलों से तालमेल और कुछ जन सहानुभूति की उम्मीद है.

एक ओर भाजपा राज्य-दर-राज्य सुनियोजित चुनावी बिसात बिछा रही है, तो विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ में लोकसभा चुनाव की कोई रणनीति नजर नहीं आती. कांग्रेस का फोकस राहुल गांधी की न्याय यात्रा पर ज्यादा नजर आता है, तो अन्य दल उससे संपर्क और संवाद का इंतजार करते-करते चुनावी तैयारियों में पिछड़ गये हैं. सात महीने में भी सीट बंटवारा तो दूर, संयोजक और न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करने में भी नाकाम ‘इंडिया’ ने देश के उन मतदाताओं को भी निराश किया है, जो सशक्त विपक्ष को जीवंत लोकतंत्र के लिए जरूरी मानते हैं. कहना नहीं होगा कि सबसे बड़े विपक्षी दल के नाते इस स्थिति के लिए कांग्रेस की दिशाहीनता और सुस्ती ही अधिक जिम्मेदार है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Print Friendly, PDF & Email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!