Denvapost Exclusive : उपराष्ट्रपति का इस्तीफा: सत्ता संरचना के भीतर बढ़ते तनाव का संकेत

भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का अचानक इस्तीफा भारतीय संसदीय लोकतंत्र के लिए एक अप्रत्याशित झटका है। संविधान की सबसे ऊँची व्यवस्थाओं में से एक व्यक्ति का इस तरह जाना केवल “स्वास्थ्य कारणों” का मामला नहीं हो सकता, खासकर तब, जब वे संसद के मानसून सत्र के पहले दिन सक्रिय भूमिका में देखे गए हों और उनके कार्यालय ने पूरे सप्ताह के सार्वजनिक कार्यक्रम घोषित किए हों।

यह इस्तीफा केवल व्यक्तिगत या स्वास्थ्य से जुड़ा मामला नहीं है — यह कार्यपालिका और संसद के बीच गहराते अंतर्विरोधों, और सत्तारूढ़ दल के भीतर की खींचतान का स्पष्ट संकेत है।

धनखड़ का विद्रोह: संविधान की व्याख्या को लेकर संघर्ष

उपराष्ट्रपति रहते हुए जगदीप धनखड़ का रवैया शुरू से ही विवादास्पद रहा है। वे बार-बार संसदीय सर्वोच्चता की बात करते रहे और उन्होंने न्यायपालिका की भूमिका व स्वायत्तता पर सवाल उठाए। खासकर जब उन्होंने संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों की वैधता पर सार्वजनिक बहस की वकालत की — यह न सिर्फ एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति से असामान्य था, बल्कि सीधे उस संवैधानिक मूल्य संरचना को चुनौती देना था, जिस पर गणराज्य टिका है।

हाल के दिनों में दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया को लेकर उपराष्ट्रपति और सरकार के बीच विचार टकराव की स्थिति बनी। कहा जा रहा है कि जिस तरह से धनखड़ ने संसदीय नियमों और प्रक्रिया के तहत विपक्ष के प्रस्ताव को स्वीकार किया, वह सरकार की रणनीति के अनुकूल नहीं था।

यह सिर्फ इस्तीफा नहीं, एक चेतावनी है

धनखड़ का इस्तीफा संवैधानिक संस्थानों के बीच संतुलन के संकट की ओर इशारा करता है। उपराष्ट्रपति का पद केवल प्रतीकात्मक नहीं होता; वह राज्यसभा का सभापति भी होता है — और ऐसे में उनका निष्पक्ष होना अनिवार्य है।

पिछले तीन वर्षों में, विपक्ष द्वारा उन पर पक्षपातपूर्ण रवैये का आरोप लगाया गया। यहाँ तक कि उनके खिलाफ हटाने का प्रस्ताव लाया गया — भारतीय संसदीय इतिहास में यह एक असाधारण घटना थी। लेकिन हाल के सप्ताहों में उनके फैसले संकेत देते हैं कि उन्होंने एक संविधानवादी रुख अपनाना शुरू कर दिया था, जिसने उन्हें सत्ता के केंद्रीय प्रतिष्ठान से अलग कर दिया।

सरकारी दबाव या वैचारिक मतभेद?

यह स्पष्ट नहीं है कि धनखड़ ने इस्तीफा सरकारी दबाव में दिया या वे संवैधानिक विवेक के तहत सत्ता के किसी आंतरिक टकराव का शिकार हुए। लेकिन दोनों ही स्थितियाँ भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता के लिए चिंताजनक हैं।

उपराष्ट्रपति का अचानक हट जाना उस व्यापक प्रवृत्ति का हिस्सा लगता है, जिसमें संविधान की आत्मा के स्थान पर राजनीतिक लाभ का वर्चस्व स्थापित किया जा रहा है। यह घटनाक्रम केवल संसदीय राजनीति की बात नहीं है; यह भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद पर उठ रहे प्रश्न हैं।

क्या यह लोकतंत्र के गिरते तापमान की चेतावनी है?

धनखड़ का इस्तीफा सिर्फ एक व्यक्ति का व्यक्तिगत निर्णय नहीं है। यह उन शक्तियों के टकराव की अभिव्यक्ति है जो आज भारत के लोकतंत्र को नई दिशा देने की कोशिश कर रही हैं — किसी को मजबूत करने की तो किसी को कमजोर।

यदि लोकतंत्र में संस्थानों की भूमिका केवल सत्ता की सुविधा तक सीमित कर दी जाएगी, तो वह लोकतंत्र आंकड़ों में तो जीवित रहेगा, पर आत्मा से मृतप्राय हो जाएगा।

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