Denvapost Exclusive : बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण: संशय और संवैधानिकता के बीच लोकतंत्र की परीक्षा

बिहार में विधानसभा चुनावों से कुछ ही महीने पहले मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) न केवल प्रशासनिक प्रक्रिया है, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र की जड़ों तक पहुँचने वाला संवेदनशील विषय बन गया है। सुप्रीम कोर्ट इस पर 28 जुलाई को सुनवाई करने जा रहा है, और यह केवल तकनीकी या प्रक्रिया संबंधी मुद्दा नहीं, बल्कि “लोकतांत्रिक अधिकार बनाम प्रशासकीय सुधार” का मामला बन चुका है।

भारतीय चुनाव आयोग ने दावा किया है कि यह प्रक्रिया पूर्णत: संवैधानिक, समावेशी और आवश्यक है। आयोग के अनुसार, अब तक बिहार के लगभग 95% मतदाताओं को कवर किया जा चुका है, और अंतिम नामावली जारी होने से पहले सभी को दावा और आपत्ति दर्ज कराने का पर्याप्त अवसर मिलेगा। आयोग का यह भी कहना है कि वह मृत, स्थानांतरित और बहु-पंजीकृत नामों को हटाने के साथ-साथ वास्तविक मतदाताओं को सूची में बनाए रखने हेतु ज़मीनी स्तर पर काम कर रहा है।

लेकिन यह आधिकारिक तर्क जितना तकनीकी लगता है, उतना ही यथार्थ से कटे हुए सामाजिक प्रश्न भी उठ खड़े हुए हैं। याचिकाकर्ताओं — जिनमें एडीआर जैसी विश्वसनीय संस्थाएं शामिल हैं — ने सवाल उठाया है कि इस प्रक्रिया में जो दस्तावेज मांगे जा रहे हैं, वे गरीबों, प्रवासी मजदूरों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए न केवल असुविधाजनक बल्कि मतदाता अधिकार से वंचित करने वाले साबित हो सकते हैं। नागरिकता प्रमाण में माता-पिता के दस्तावेज़ की मांग न केवल संविधान के अनुच्छेद 326 की भावना के विरुद्ध है, बल्कि यह समानता और समावेशिता के सिद्धांतों पर चोट है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि मतदाता सूची की शुद्धता अनिवार्य है — एक मतदाता, एक मत, एक स्थान — यही लोकतांत्रिक मर्यादा की नींव है। लेकिन इस शुद्धता के नाम पर यदि हजारों-लाखों वास्तविक मतदाताओं को तकनीकी आधार पर सूची से बाहर कर दिया जाए, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को नुकसान पहुंचाने जैसा होगा।

चुनाव आयोग का यह कहना कि प्रक्रिया की आलोचना मीडिया लेखों पर आधारित है और इसलिए इसे ‘गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए’, लोकतंत्र में जन संवाद और सिविल सोसाइटी की भूमिका को कमतर आंकना है। जब देश की सबसे बड़ी अदालत में मामला विचाराधीन है, तो यह मान लेना कि “सब कुछ ठीक है” एक पूर्वग्रह की स्थिति उत्पन्न करता है।

यह भी उल्लेखनीय है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने आधार, राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र को पहचान के प्रमाण के तौर पर स्वीकारने पर विचार करने को कहा, तो यह एक प्रकार से संकेत था कि सहूलियत और व्यावहारिकता को प्रक्रियात्मक कठोरता पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

निष्कर्ष : बिहार में मतदाता सूची की गहन समीक्षा, यदि पारदर्शिता, न्याय और समावेशन की भावना से संचालित हो, तो यह लोकतंत्र को मजबूत करने वाली प्रक्रिया बन सकती है। लेकिन अगर यह डर, दस्तावेज़ों और अपारदर्शिता से ग्रस्त रही, तो यह उन लाखों भारतीयों को मौन करने का औजार बन जाएगी, जिनकी आवाज़ ही लोकतंत्र की असली पहचान है।

28 जुलाई की सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई से केवल कानूनी दिशा नहीं, बल्कि भारत में मतदाता अधिकारों की सामाजिक परिभाषा भी तय होने जा रही है।

संपादकीय टीम | denvapost

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