Dehli News : सरकारी बंगले पर अनिश्चितकालीन कब्जा नहीं चलेगा: सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व विधायक की याचिका खारिज की

Can't keep occupying govt bungalow indefinitely: SC

“लोकतंत्र में पद नहीं, नियम सर्वोच्च हैं” — सुप्रीम कोर्ट का सख्त संदेश

नई दिल्ली | सरकारी पद से इस्तीफा देने के बावजूद दो साल तक बंगले में रहने पर लगाए गए ₹21 लाख के दंडात्मक किराए के खिलाफ याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को सख्त टिप्पणी की:

“कोई भी व्यक्ति अनिश्चित काल तक सरकारी आवास पर काबिज नहीं रह सकता।”

बिहार के पूर्व विधायक अविनाश कुमार सिंह की याचिका खारिज करते हुए अदालत ने कहा कि सार्वजनिक पद की समाप्ति के बाद व्यक्ति को निर्धारित समयसीमा में आवास खाली करना अनिवार्य है। सिंह, जो ढाका विधानसभा क्षेत्र से पांच बार विधायक रह चुके हैं, ने 2014 में इस्तीफा दिया था, लेकिन पटना के टेलर रोड स्थित बंगले में मई 2016 तक बने रहे।

सुप्रीम कोर्ट का रुख: नियम सब पर समान

सीजेआई बी. आर. गवई, जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस एन. वी. अंजारिया की पीठ ने स्पष्ट किया कि “सरकारी आवासों पर कब्जा नियमों से तय होता है, न कि प्रभाव या पूर्व पद से”।

अदालत ने याचिकाकर्ता के वकील अनिल मिश्रा द्वारा पेश तर्क — कि “₹21 लाख का किराया बहुत अधिक है” — को खारिज करते हुए कहा कि वह उपलब्ध कानूनी विकल्पों का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन बिना कानूनी अधिकार के सरकारी बंगले पर बने रहना वैध नहीं।

हाईकोर्ट की टिप्पणी: विशेषाधिकार का कोई स्थायी आधार नहीं

इससे पहले पटना हाईकोर्ट ने भी सिंह की याचिका खारिज करते हुए कहा था कि उन्हें जिस ब्यूरो (राज्य विधानमंडल अनुसंधान एवं प्रशिक्षण ब्यूरो) में नामित किया गया, वह विधायक स्तर के आवास का अधिकार नहीं देता। हाईकोर्ट ने उन्हें 6% ब्याज के साथ बकाया किराया चुकाने का निर्देश दिया था।

‘लोक प्रहरी’ और ‘एस. डी. बंदी’ के फैसलों की पुनर्पुष्टि

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दो ऐतिहासिक फैसलों — ‘लोक प्रहरी बनाम उत्तर प्रदेश’ और ‘एस. डी. बंदी बनाम कर्नाटक’ — का उल्लेख किया, जिसमें अदालत ने सार्वजनिक हस्तियों को सरकारी संपत्ति पर अनधिकृत कब्जा करने के विरुद्ध स्पष्ट आदेश दिए थे और सरकारों को ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई करने को कहा था।

यह फैसला क्यों महत्वपूर्ण है

लोकतांत्रिक जवाबदेही का संदेश — पद छिनने के बाद भी जिम्मेदारी बनी रहती है।

सार्वजनिक संसाधनों की रक्षा के लिए अदालत की सतर्कता।

राजनीतिक संस्कृति में सुधार की दिशा में एक कदम।

यह फैसला न केवल बिहार या अविनाश सिंह के लिए, बल्कि पूरे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक चेतावनी और मार्गदर्शन दोनों है — कि “सत्ता नहीं, संविधान सर्वोपरि है।”

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