
नर्मदापुरम जिले का प्राचीन नगर सोहागपुर इतिहास, संस्कृति और शिक्षा—तीनों का संगम है। यह नगर कभी वाड़ासुर की राजधानी सोणितपुर कहलाता था। पलकमती (नर्मदा) नदी का तट, जमनी तालाब, स्वादिष्ट पान और कलात्मक सुराही इसकी पहचान रहे हैं। लेकिन सोहागपुर की असली पहचान इसकी शिक्षक परंपरा से है, जिसे आगे बढ़ाया स्व. मिश्रीलाल गुरुजी ने।
गुरुजी: शिक्षा और संस्कार के प्रतीक
मिश्रीलाल गुरुजी अंग्रेज़ी विषय के शिक्षक थे, लेकिन उनके लिए अध्यापन केवल नौकरी नहीं, बल्कि समाज निर्माण का मिशन था। सीमित साधनों और साधारण वेतन के बावजूद उन्होंने विद्यार्थियों को न केवल पढ़ाया, बल्कि उन्हें अनुशासन, ईमानदारी और नैतिकता का मार्ग भी दिखाया। यही कारण है कि उनके कई शिष्य आज उच्च पदों पर पहुँचकर भी गर्व से कहते हैं—“हम गुरुजी के छात्र हैं।”
गुरुजी के पुत्र, जो स्वयं सेवानिवृत्त इंजीनियर हैं, हर साल अपने पिता की पुण्यतिथि पर स्थानीय शिक्षकों का सम्मान करते हैं। यह परंपरा केवल एक परिवार की श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि इस बात का संदेश है कि समाज में गुरु का सम्मान सबसे ऊपर होना चाहिए।
बदलता समय और शिक्षा की चुनौतियाँ
आज का दौर शिक्षा को केवल “व्यवसाय” के रूप में देखने लगा है। कोचिंग कल्चर, डिजिटल प्लेटफॉर्म और प्रतिस्पर्धा की दौड़ ने शिक्षक-छात्र के रिश्ते की आत्मीयता को कम कर दिया है। सवाल उठता है—क्या आज के विद्यार्थी मिश्रीलाल गुरुजी जैसे किसी शिक्षक से वही आत्मीय मार्गदर्शन पाते हैं, जो उन्हें किताबों से बाहर जीवन की सच्चाइयाँ सिखाए?
सोहागपुर: संस्कृति और प्रकृति का संगम
सोहागपुर न केवल शिक्षा बल्कि अपनी प्राकृतिक धरोहर के लिए भी चर्चित है। देनवा नदी का तट और मढ़ई का क्षेत्र आज सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व का प्रवेश द्वार है। यह इलाका अंतरराष्ट्रीय पर्यटन मानचित्र पर दर्ज है। पर्यटक यहाँ जंगल सफारी के साथ-साथ इस नगर की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को भी अनुभव करते हैं।
शिक्षक दिवस का सच्चा अर्थ
भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन कहा करते थे—“शिक्षक वह है, जो केवल पढ़ाता ही नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला भी सिखाता है।”
मिश्रीलाल गुरुजी का जीवन इसी विचार का प्रमाण है।
इसलिए शिक्षक दिवस केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि यह संकल्प है कि समाज शिक्षा को केवल व्यवसाय न समझे, बल्कि चरित्र और संस्कार निर्माण का आधार माने।
“गुरु का आदर करना केवल उनका सम्मान नहीं, बल्कि अपनी आत्मा का पोषण करना है।” – डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
