
आजकल हर अवसर पर—चाहे वह स्वतंत्रता दिवस हो, शिक्षक दिवस हो या गणेश उत्सव—लोग शुभकामनाएँ देने के नाम पर नेताओं की बड़ी-बड़ी तस्वीरों वाले संदेश भेज रहे हैं।
ऐसा लगता है मानो शुभकामना से ज्यादा ज़रूरी है कि नेता की फोटो सबसे ऊपर और सबसे बड़ी हो।
किसी को शिक्षक दिवस की बधाई मिले और कार्ड पर सबसे सामने “माननीय फलाँ-फलाँ” का मुस्कुराता चेहरा हो, तो सवाल उठना लाज़मी है—यह संदेश गुरुजनों के सम्मान का है या नेता जी की ब्रांडिंग का?
असल में यह परंपरा शुभकामना को विज्ञापन में बदल देती है।
जहाँ असली जगह गुरु, पर्व या राष्ट्रीय मूल्यों की होनी चाहिए, वहाँ कुर्सी और चेहरा कब्ज़ा जमाए बैठे हैं।
जनता भी समझ रही है कि इस “शुभकामना संस्कृति” के पीछे कृतज्ञता से ज्यादा राजनीति की रणनीति छिपी है।
संदेश देने वाला सोचता है—“देखो, मैंने नेता जी की फोटो सबसे पहले लगाई, अब मेरी निष्ठा साबित हो गई।”
पर सवाल यही है कि भक्ति दिखाने के लिए क्या त्योहारों और सांस्कृतिक अवसरों की आत्मा को कुर्बान करना सही है?
शुभकामना तभी सार्थक है जब उसमें दिल की भावना झलके, न कि नेता जी की मुस्कान।