बिना रास्ते का स्कूल: जहां बच्चे नहीं, सिर्फ़ घास और राजनीति उगती

highschool
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माखननगर। कहते हैं शिक्षा अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है। पर सवाल यह है कि जब स्कूल (highschool) तक पहुंचने का रास्ता ही न हो, तो प्रकाश कहां से आएगा?
यह कहानी है आरी गांव के सरकारी हाई स्कूल (highschool) की — जिसे शासन ने तो बना दिया, लेकिन यह देखना भूल गया कि वहां तक पहुंचने का कोई रास्ता भी है या नहीं।

लगभग 10 लाख रुपए की लागत से बना यह हाई स्कूल (highschool) आज खंडहर में तब्दील हो चुका है। जिस भवन से बच्चों की हंसी गूंजनी थी, वहां अब झाड़ियां, दीमक और खामोशी पल रही है। स्कूल की दीवारें तो हैं, पर दरवाजे रास्ते के बिना बंद हैं। कहावत है—“नियत साफ हो तो मुश्किल में भी रास्ते खुद ब खुद निकल आते।” यहां तो न रास्ता है, न नियत। शासन ने भवन बनाकर अपनी फाइल में विकास का एक और टिक लगा दिया, और प्रशासन ने चैन की नींद सो ली।

10 लाख की लागत से बना स्कूल, पर रास्ते की कीमत नहीं समझी

सूत्रों के मुताबिक, यह स्कूल (highschool) करीब 10 लाख की लागत से वर्ष 2013 में बनकर तैयार हुआ।
गांव में पहले से एक पुरानी मिडिल स्कूल की बिल्डिंग थी, जिसमें हाई स्कूल (highschool) का संचालन होता था। वह इमारत जर्जर हो चुकी थी। ग्रामीणों ने नई बिल्डिंग की मांग की — शासन ने मांग तो सुनी, पर जमीन चुनते समय अपनी आंख बंद कर ली।

गांव के कुछ “बुद्धिजीवियों” ने आनन-फानन में ऐसी जगह चुन ली जहां तक पहुंचने के लिए कोई सड़क ही नहीं थी। यानी “पहले बनाओ, बाद में सोचो” वाली नीति लागू कर दी गई।

अब जब स्कूल (highschool) बन गया, तो सवाल उठा—बच्चे वहां तक कैसे जाएंगे?
प्रशासन के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। आखिर सरकारों के पास बच्चों की समस्याओं से ज्यादा ज़रूरी मुद्दे हैं।

विधायक ने लोकार्पण किया,पर रास्ते पर नजर ही नहीं गई

2013 में स्कूल (highschool) का लोकार्पण स्थानीय विधायक विजयपाल सिंह द्वारा किया गया। रिबन कटा, ताली बजी, भाषण हुआ — “शिक्षा हर घर का अधिकार है।” पर किसी ने यह नहीं देखा कि जिस स्कूल(highschool) का उद्घाटन किया जा रहा है, वहां तक पहुंचने का रास्ता कहां है।

एक साल तक स्कूल जैसे-तैसे चला। बच्चे खेतों से होकर, नाले फांदकर स्कूल (highschool)पहुंचे। फिर बारिश आई और रास्ता नाले में समा गया। उसके बाद स्कूल का रास्ता बंद हो गया और शिक्षा भी वहीं ठहर गई। गांव के लोग कहते हैं, “सरकार ने स्कूल दिया तो जरूर, लेकिन वहां पहुंचने का टिकट नहीं दिया।”

जिस जमीन से रास्ता जाता था, वह गायब हो गया

विवाद की जड़ उस जमीन में है, जिससे स्कूल(highschool) तक जाने का रास्ता निकलता है। यह जमीन आर.के. सेठ की थी, जिन्होंने ग्रामीणों की सुविधा के लिए रास्ता छोड़ रखा था। लेकिन कुछ साल पहले स्थिति बदल गई। अब यह रास्ता “निजी खेत” बन चुका है।

गौरव सेठ, जो आर.के. सेठ के पोते हैं, कहते हैं— “हमारे दादा ने रास्ते के लिए जगह छोड़ी थी। आज भी हमें कोई आपत्ति नहीं, स्कूल वहां से रास्ता निकाले तो ठीक है। मैं 15 से 20 फीट जमीन और देने को तैयार हूं।”

लेकिन समस्या खत्म नहीं होती।

श्रीमती अनिता साहू जो उसी रास्ते के पास की जमीन की मालिक हैं। उन्होंने जो रास्ता बंद कर दिया और दावा किया कि यह जमीन उनके खेत का हिस्सा है।

श्रीमति अनिता साहू खुद एक शासकीय कर्मचारी हैं, लेकिन उन्होने देनवापोस्ट को कुछ यह दलील दी — “मेरी जमीन खरीदी हुई है, किसी ने दान में नहीं दी। अगर शासन को रास्ता चाहिए तो खरीदे, मैं बेचने को तैयार हूं।”

अब यह सोचने वाली बात है कि सरकार ने 10 लाख खर्च कर स्कूल तो बनाया, लेकिन रास्ते के लिए कुछ हजार नहीं दे सकती।

कलेक्टर के आदेश भी ठंडे पड़े

ग्रामीणों ने जब रास्ते की समस्या लेकर कलेक्टर सोनिया मीना से गुहार लगाई, तो उम्मीद जगी। अप्रैल 2024 में उन्होंने नायब तहसीलदार नीरू जैन को निर्देश दिए कि विवाद सुलझाकर रास्ता खुलवाया जाए। निर्देश दिए गए, बैठकें हुईं, पंचनामा बना — पर रास्ता वहीं का वहीं रहा।

कलेक्टर बदल गए, अधिकारी बदले, पर स्कूल की किस्मत नहीं बदली। अब गांव वाले कहते हैं, “यह स्कूल अब शिक्षा का नहीं, सिस्टम की नाकामी का स्मारक है।”

स्कूल चढ़ा राजनीति की भेंट

कभी बच्चों की पढ़ाई के लिए बना यह स्कूल अब नेताओं के बयानबाजी का अड्डा बन चुका है। कोई इसे “सरकार की गलती” बताता है, तो कोई “स्थानीय प्रशासन की लापरवाही।”पर कोई यह नहीं बताता कि बच्चे अब कहां पढ़ रहे हैं।

गांव के एक बुजुर्ग ने कहा— “यह स्कूल तो राजनीति पढ़ाने के काम आ सकता है, क्योंकि यहां हर विषय का जवाब ‘दूसरे की गलती’ में मिलता है।”

खंडहर में बदला स्कूल, बच्चों की आवाजें भी खामोश हैं

अब यह स्कूल एक जीर्ण इमारत बन चुका है। दीवारों की पपड़ी उखड़ चुकी है, छत से पानी टपकता है। बरामदे में झाड़ियां उग आई हैं, और कक्षाओं में कचरा भरा है। जहां कभी बच्चों की गिनती होती थी, अब वहां बकरियों चर रही है।

ग्रामीण बताते हैं कि 2014 के बाद से स्कूल में पढ़ाई बंद है। सरकार की नीतियों में “हर गांव में स्कूल” लिखा है, पर यहां तो “हर स्कूल में रास्ता नहीं” वाली स्थिति है।

विकास के नाम पर एक और फाइल बंद

इस पूरे प्रकरण की सबसे दिलचस्प बात यह है कि विभागीय रिकॉर्ड में यह स्कूल (highschool) “संचालित” दिखाया गया है। यानी फाइलों में सब ठीक है। भवन बना, उद्घाटन हुआ, तस्वीरें आईं, बजट खर्च हुआ — यानि कागज पर सब विकास हो चुका है।

शासन के लिए यह एक और “पूरा हुआ प्रोजेक्ट” है, लेकिन हकीकत में यह बिना रास्ते का सपना है। यह मामला सिर्फ एक स्कूल (highschool) का नहीं, बल्कि उस सोच का उदाहरण है जहां दिखावे की इमारतें बनती हैं, मगर नींव और रास्ता अधूरा छोड़ दिया जाता है।

ग्रामीणों की व्यथा और सिस्टम की विफलता

गांव के लोग अब थक चुके हैं। कई बार आवेदन, ज्ञापन और गुहारें लग चुकी हैं। हर बार जवाब मिलता है — “मामला विचाराधीन है।” सरकारी भाषा में इसका अर्थ है — “अब भूल जाइए।”

अगर इस कहानी को देखा जाए, तो यह किसी थिएटर स्क्रिप्ट से कम नहीं।
पहले सरकार ने बिना रास्ते के स्कूल बनवाया, फिर विधायक ने बिना रास्ता देखे उद्घाटन किया, फिर प्रशासन ने बिना कार्रवाई के फाइल बंद कर दी।

तीनों ने अपना-अपना रोल बखुबी निभा दिया।
अब मंच खाली है,तालियां नहीं, दर्शक यानी ग्रामीण ठहाके लगा रहे हैं — अपनी मजबूरी के।

आरी गांव का हाई स्कूल (highschool) शायद देश का पहला ऐसा सरकारी स्कूल है जहां शिक्षा का सबसे बड़ा पाठ यही है — “रास्ता न हो, तो मंजिल सिर्फ़ भाषणों में मिलती है।”

यह स्कूल उस सिस्टम की तस्वीर है जो दिखावे के दीप जलाता है, पर रास्ता नहीं बनाता।
जिस दिन शासन और प्रशासन इस खंडहर की दीवारों से झांकते सवालों को सुन लेगा, शायद तब बच्चे फिर से पढ़ने लौट आएंगे। तब तक यह स्कूल रहेगा — एक विकास का प्रतीक नहीं, बल्कि विफलता का स्मारक।

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