NEW DELHI: एक महिला न्यायिक अधिकारी का इस्तीफ़ा न केवल व्यक्तिगत पीड़ा का दस्तावेज़ है, बल्कि यह उस संस्थागत संरचना पर कठोर प्रश्नचिन्ह भी है, जो पारदर्शिता, समानता और न्याय का दावा करती है। यह इस्तीफ़ा बताता है कि न्यायपालिका के भीतर भी पीड़ित को सुनने और दोषी को जवाबदेह ठहराने की बुनियादी संवेदनशीलता कई बार अनुपस्थित रहती है।
जब एक अधिकारी, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने “मनमाने ढंग से हटाया गया” करार दिया, वही अधिकारी यह कहती है कि उसे प्रताड़ित करने वाले को हाईकोर्ट का न्यायाधीश बना दिया गया — और उस पर कोई सवाल तक नहीं उठाया गया — तो यह न्याय की आत्मा को गहराई तक झकझोरने वाला क्षण बन जाता है।
उनकी यह टिप्पणी — “आपने न्याय करने से इनकार कर दिया, जहाँ यह सबसे ज़्यादा मायने रखता था” — केवल एक इस्तीफे की टिप्पणी नहीं है, यह एक व्यवस्था पर जाँच है। उन्होंने जिस व्यवस्था पर भरोसा किया, वही उनके लिए एक पीड़ादायक दीवार बन गई।
यह घटना यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारी न्याय प्रणाली में भीतर से आत्मसमीक्षा और जवाबदेही का कोई स्थायी ढांचा मौजूद है? या फिर सत्ता और पद के समीकरण ही निर्णयों का आधार बनते हैं?