जी हाँ, दूतावास!
वो भी ऐसे देशों के, जो पृथ्वी पर कभी जन्मे ही नहीं!
और ये सब किसी खुफिया बंकर में नहीं, एक शानदार बंगले से चल रहा था।
बाहर डिप्लोमैटिक नंबर प्लेट, अंदर नकली विदेश मंत्रालय की सीलें और हाथ में शांति का सर्टिफिकेट।
और सरकार… मौन तपस्या में
इतने सालों में किसी जनप्रतिनिधि को, किसी थानेदार को, किसी तहसीलदार को, किसी पड़ोसी को, किसी दूधवाले को — किसी को भी शक नहीं हुआ!
शायद सबको यही लगा हो कि आदमी बहुत बड़ा VIP है — या फिर Netflix की कोई सीक्रेट सीरीज शूट हो रही है।
जैन साहब न सिर्फ फर्जी पासपोर्ट, फर्जी वीजा, डिप्लोमैटिक ID कार्ड बांटते रहे, बल्कि उनके ग्राहक भी जानते थे कि ये ‘अंतरराष्ट्रीय धंधा’ है।
सिर्फ पुलिस, ईडी और सीबीआई को नहीं पता था।
रामराज्य में भी ईर्ष्या होती थी!
इतनी शानदार जिंदगी जी रहे थे जैन साहब कि किसी ने जलन तक नहीं की!
जबकि भारत तो वो देश है, जहाँ पड़ोसी की बालकनी में नया गमला देखकर भी लोग टेंशन में आ जाते हैं।
यहाँ आदमी नौ साल तक फर्जी देशों का राजदूत बना बैठा है और सरकार कहती है — “हमें जानकारी नहीं थी!”
कहीं हम ही फर्जी तो नहीं?
जब कोई इंसान, चार देश बनाकर, उनके दूतावास खोलकर, लाखों की उगाही करके भी पकड़ा न जाए, तो ये शक होना लाज़मी है कि शायद हम ही असली नहीं हैं।
कभी-कभी लगता है कि जो कुछ भी असली है — जैसे ईमानदारी, संविधान, कानून, या विवेक — वो ही इस देश में सबसे बड़ा फर्जीवाड़ा है।
और असली वही है जो नकली को भी मात दे दे — जैसे जैन साहब!
गाज़ियाबाद अब कूटनीति का नया केंद्र है, और अगली बार अगर कोई कहे कि “वह ग्वाटेमाला का एम्बेसडर है,” तो पहले गूगल कर लेना, कहीं वो ‘गाजियाबाद ग्वाटेमाला’ तो नहीं है?
“फर्जीवाड़ा अब पेशा नहीं रहा — यह अब हमारी व्यवस्था का स्थायी साथी बन गया है।”
असली सवाल अब ये नहीं कि पकड़ा कौन गया — बल्कि ये है कि अब भी कितने पकड़े जाने बाकी हैं।
✍ दीपक शर्मा
व्यंग्य लेखक (असली या नकली — यह जाँच अभी लंबित है)