रिश्वत, धमकी और मेडिकल रिपोर्ट पर दबाव — मध्य प्रदेश पुलिस पर गंभीर सवाल
मध्य प्रदेश के सीधी जिले के चुरहट थाना क्षेत्र से एक दिल दहला देने वाली घटना सामने आई है, जिसने एक बार फिर पुलिसिया अत्याचार, मानवाधिकार हनन और सिस्टम की जवाबदेही पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
क्या है पूरा मामला?
चुरहट निवासी टिंकू पांडे, जिसे 9 जुलाई की दोपहर को काली माता की मूर्ति की आंख चोरी के शक में पुलिस ने उठाया, रात 2 बजे तक बेहोशी की हालत में उसके घर के बाहर फेंक दिया गया।
टिंकू के अनुसार, हेड कांस्टेबल नितेश प्रजापति और एक अन्य पुलिसकर्मी महाराणा प्रताप उसके घर आए और उसकी दादी से कहकर उसे साथ ले गए कि “थाने में साहब ने पूछताछ के लिए बुलाया है”। थाने पहुंचते ही टिंकू को बिना कोई औपचारिक प्रक्रिया के एक कमरे में बंद कर बेरहमी से पीटा गया।
रिश्वत की मांग और धमकी
टिंकू का आरोप है कि पीटने के बाद पुलिस ने उससे ₹20,000 रुपये की रिश्वत मांगी और धमकी दी कि “पैसे नहीं दिए तो कोरेक्स के जरिए NDPS एक्ट में फंसा दिया जाएगा।”
पैसे न होने की बात कहने पर फिर से मारपीट की गई। रात 2 बजे उसके भाई के साथ उसे छोड़ा गया — उस वक्त वह बेहोश था।
मेडिकल रिपोर्ट: सच छुपाने का दबाव
अगले दिन टिंकू की हालत बिगड़ने पर उसे चुरहट अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टर वरुण सिंह ने उसका इलाज किया और मारपीट की पुष्टि मेडिकल रिपोर्ट में की। बाद में गंभीर स्थिति में उसे रीवा के संजय गांधी अस्पताल रेफर किया गया, जहां वह 6 दिन तक भर्ती रहा।
डॉ. वरुण सिंह ने खुलकर कहा कि उन पर रिपोर्ट में सच्चाई न लिखने का दबाव डाला गया, लेकिन उन्होंने “पूरी सच्चाई रिपोर्ट में दर्ज की है”।
क्या कार्रवाई हुई?
पीड़ित टिंकू ने रीवा आईजी कार्यालय में शिकायत दर्ज कराई है। वरिष्ठ अधिकारियों ने “जांच कर दोषियों पर कार्रवाई का आश्वासन” दिया है।
लेकिन जब मीडिया ने चुरहट थाना प्रभारी दीपक सिंह बघेल से संपर्क करने की कोशिश की, तो उन्होंने सवालों का जवाब नहीं दिया और बाद में कॉल उठाना बंद कर दिया।
राजनीतिक और प्रशासनिक सवाल
1. बिना गिरफ्तारी या एफआईआर के रात भर थाने में हिरासत: यह साफ रूप से दमनात्मक कार्रवाई और संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन है।
2. रिश्वत की मांग और NDPS एक्ट में फंसाने की धमकी: पुलिस द्वारा कानून के दुरुपयोग का यह उदाहरण बेहद गंभीर है।
3. मेडिकल स्टाफ पर दबाव: यह दर्शाता है कि केवल पुलिस ही नहीं, बल्कि पूरा सिस्टम दबाव और डर के माहौल में संचालित हो रहा है।
4. थाना प्रभारी की चुप्पी: जवाबदेही के नाम पर मौन! यह स्थिति राज्य की पुलिस व्यवस्था पर सीधा अविश्वास पैदा करती है।
न्याय की उम्मीद बनाम ज़मीनी हकीकत
ऐसे मामलों में आमतौर पर जांच, निलंबन और बाद में “प्रमाणों के अभाव” में कार्रवाई खत्म हो जाती है। लेकिन यदि मेडिकल रिपोर्ट, डॉक्टर का बयान और पीड़ित की गवाही सही दिशा में दर्ज होती है, तो यह मामला मानवाधिकार आयोग और न्यायपालिका के दखल तक जा सकता है।