फ़िल्म – दुकान
निर्माता- अमर और शिखा
निर्देशक- सिद्धार्थ गरिमा
कलाकार- मोनिका पंवार,सिकंदर खेर, मोनाली ठाकुर, व्रजेश हिरजी,गीतिका त्यागी,सनी देओल और अन्य
प्लेटफार्म- सिनेमाघर
रेटिंग- ढाई
Dukaan Movie Review: गोलियों की रासलीला, बाजीराव मस्तानी जैसी सुपरहिट फ़िल्मों से लेखक सिद्धार्थ और गरिमा का नाम जुड़ा है. फ़िल्म दुकान से वह निर्देशन की शुरुआत कर रहे हैं. सरोगेसी पर हिन्दी सिनेमा में अब तक कई फ़िल्में बन चुकी है. कई नामी गिरामी सितारों की निजी ज़िंदगी की भी यह सच्चाई है . यह फ़िल्म कमर्शियल सरोगेसी की उसी मुद्दे को सामने लेकर आती हैं, हालांकि कमर्शियल सरोगेसी को लेकर अब नये नियम बन चुके हैं लेकिन यह फ़िल्म सरोगेसी की उस व्यवसायिक दुनिया की खोज करती है,जिसके लिये एक वक़्त गुजरात का आनंद देश विदेश तक मशहूर था . फ़िल्म कॉन्सेप्ट लेवल पर जितनी सशक्त दिखती है ,पर्दे पर उस तरह से नहीं आ पायी है.सरोगेट्स के दर्द को गहराई में उतरकर यह फ़िल्म दर्शाने से चूक गयी है . मोनिका पांवर के अभिनय की ज़रूर तारीफ़ बनती है. उन्होंने बहुत बेबाक़ी के साथ अपनी भूमिका को निभाया है .
कमर्शियल सरोगेसी की है कहानी
फिल्म की कहानी चमेली की है, जो बचपन में ख़ुद अपना नाम चमेली से जैस्मीन (मोनिका) रख लेती है. जिस तरह से वह अपना नाम रखती है .वह अपनी ज़िंदगी को भी ख़ुद ही लिखती है. समाज के बने बनाये नियम से अलग वह चलती है. युवा होने पर वह अपने लिए पति सुमेर (सिकंदर खेर)को चुनती है, जिसकी उससे कुछ साल छोटी एक सौतेली बेटी है. सुमेर से उसे एक बेटा होता है लेकिन उसे बच्चे से लगाव नहीं है. उसकी वजह बचपन की एक दुखद घटना है. सब कुछ ठीक से चल रहा होता है कि सुमेर की मौत हो जाती है. अपनी ज़रूरतों के अलावा सौतेली बेटी की शादी की ज़िम्मेदारी जैस्मिन पर आ जाती है. पैसों की तलाश उसे डॉ. नव्या चंदेल (गीतिका त्यागी) तक पहुंचाती है. जहां उसे सरोगेसी के बारे में मालूम पड़ता है और सरोगेट्स बन जाती हैं.बेबी मशीन के नाम से उसकी दुकान चल पड़ती है. बेबी मशीन तब लड़खड़ाती है जब वह दीया (मोनाली ठाकुर) और अरमान (सोहम मजूमदार) के बच्चे को अपने पास रखना चाहती है. वह पेट में पल रहे बच्चे को लेकर भाग जाती है . क्या होगा जब दोनों बच्चे का परिवार होने का दावा करते है? बच्चा किसके पास जाएगा.क्या सरोगेट्स को भी परिवार का हिस्सा माना जाना चाहिए. इन्ही मुद्दों को छूती हुई यही आगे की कहानी है.
फ़िल्म की खूबियां और खामियां
सिद्धार्थ और गरिमा इस फ़िल्म की कहानी पर एक दशक से काम कर रहे हैं . फ़िल्म शुरुआत में उम्मीद भी जगाती है. इंटरवल तक कहानी एंगेज करके भी रखती है लेकिन सेकेंड हाफ में कहानी बिखर गयी है. बच्चों से प्यार ना करने वाली जैस्मिन आखिर कैसे इस बच्चे से प्यार करने लग जाती है और फिर फिल्म के क्लाइमेक्स में वह बच्चे को उसके माता पिता को देने के लिए तैयार हो जाती है. सबक़ुछ बस कहानी में होता चला जाता है. वो भी कुछ सीन में उसके पीछे कोई ठोस वजह नहीं दिखती है. फ़िल्म के स्क्रीनप्ले में इमोशन का यह ग्राफ मिसिंग है, जिससे आप इमोशनली जुड़ नहीं पाते हैं और फ़िल्म यही कमज़ोर हो जाती है. यह फ़िल्म कमर्शियल सरोगेसी को उन पहलुओं को प्रभावी तरीके से नहीं छुआ गया है. जिसकी यह फ़िल्म दावा करती है. स्क्रीनप्ले में यही बात उभर कर सामने आती है कि सरोगेट्स ज़रूरत से ज़्यादा अपनी ख्वाहिशों को इससे पूरा करना चाहती हैं. फ़िल्म के आख़िर में कुछ संवादों के ज़रिये ही उनकी परेशानी को स्थापित करने की नाकाम कोशिश की गयी है. फिल्म की कहानी में समय बदलता रहता है लेकिन किरदारों के लुक और बोलचाल में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है. यह बात अखरती है . फ़िल्म का लुक और ट्रीटमेंट कहानी के साथ न्याय करता है,लेकिन इसमें भंसाली की छाप नज़र आती है .इससे इंकार नहीं किया जा सकता है .श्रेयस पुराणिक का संगीत कहानी और किरदारों के अनुरूप है.
मोनिका का अभिनय है कमाल
अभिनय की बात करें तो यह फ़िल्म मोनिका की है. उन्होंने वेब सीरीज जामताड़ा में साबित कर दिया था कि वह काबिल अभिनेत्री हैं. इस फ़िल्म में वह बहुत ही बेबाक़ तरीक़े से अपने किरदार को निभाया है. जिसके लिये उनकी तारीफ़ करनी होगी. फ़िल्म को अकेले उन्होंने अपने कंधों पर उठाया है लेकिन आख़िर के दृश्य में वह चूकी भी हैं. जब बेटे बड़े हो जाते हैं तो भी मोनिका ने अपने किरदार को उसी एनर्जी और बॉडी लैंग्वेज के साथ जीती दिखी है. यह बात अखरती है. मोनाली ठाकुर अपने बच्चे के लिए एक मां की तड़प को सही ढंग से अपने अभिनय में उतार नहीं पायी हैं.गीतिका त्यागी और सिकंदर खेर अपनी भूमिकाओं में याद रह जाते हैं. बाक़ी के किरदारों को करने के लिए फ़िल्म में ज़्यादा कुछ ख़ास नहीं था. सनी देओल मेहमान भूमिका में दिखें हैं.