
38 वर्ष बाद भी भोपाल गैस त्रासदी की याद हमारे राष्ट्रीय विवेक को झकझोर देती है। 3 दिसंबर 1984 की वह रात केवल औद्योगिक लापरवाही का उदाहरण नहीं थी; वह मनुष्य, मशीन और मुनाफे के संतुलन पर सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न थी। दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक दुर्घटना ने यह साबित कर दिया कि जब सुरक्षा व्यवस्था कागजों में सीमित रह जाए और जिम्मेदारी का भाव सत्ता-कक्षों से गायब हो जाए, तब विनाश केवल एक तकनीकी चूक दूर होता है।
यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से रिसी मिथाइल आइसोसायनेट (MIC) गैस ने कुछ ही घंटों में भोपाल को श्मशान में बदल दिया। हजारों लोगों की तुरंत मृत्यु, लाखों का जीवनभर का संघर्ष, और पीढ़ियों तक चलता स्वास्थ्य संकट—यह सब एक भयावह सच्चाई बनकर आज भी हमारे सामने मौजूद है। त्रासदी के दशकों बाद भी प्रभावित परिवारों की आँखों में जलन और घरों में दर्द कम नहीं हुआ है।
आज भी गैस प्रभावित बस्तियों में जन्म ले रहे बच्चों में विकृतियाँ, सांस और नेत्र रोगों की लंबी कतारें, दूषित भूजल और बदहाल चिकित्सा व्यवस्था हमें बताती हैं कि यह त्रासदी क्षणिक नहीं थी—यह एक सतत अन्याय है।
न्याय की अधूरी परिभाषा
सबसे कटु सच्चाई यह है कि इतना बड़ा हादसा होने के बावजूद न्याय अधूरा है।
कंपनियों पर तय दंड उनकी गलती के अनुपात में बेहद कम रहा।
कई दोषियों को कभी भारतीय अदालतों का सामना नहीं करना पड़ा।
पुनर्वास और मुआवजा वास्तविक ज़रूरत के सामने हमेशा बौना साबित हुआ।
प्रश्न यह है कि मानव जीवन की कीमत इतनी कम क्यों आँकी गई? क्या वैश्विक कंपनियों के सामने एक विकासशील देश के नागरिकों का जीवन इतना सस्ता है?
राज्य की जिम्मेदारी और सबक
भोपाल त्रासदी ने हमें सिखाया था कि
उद्योग का विकास तभी हैं जब सुरक्षा उनकी आत्मा हो।
नियमन की ताकत कागज़ों में नहीं, क्रियान्वयन में होती है।
आपदा प्रबंधन योजनाएँ इमरजेंसी के समय किताबों में नहीं, जमीन पर दिखनी चाहिए।
दुःख की बात यह है कि इन सबकों का अनुपालन देश भर के अनेक औद्योगिक इलाकों में आज भी अधूरा है। रासायनिक और खतरनाक उद्योगों के आसपास रहने वाले लाखों लोग भोपाल के दर्द को रोज़ महसूस करते हुए जीते हैं।
भोपाल गैस कांड की वर्षगाँठ केवल पीड़ा को याद करने का दिन नहीं है; यह हमारे भविष्य के लिए चेतावनी का दिन है।
हमें ऐसी नीतियाँ बनानी होंगी जिनमें नागरिकों की सुरक्षा कॉर्पोरेट हितों से ऊपर हो।
पर्यावरण संरक्षण को विकास-विमर्श की परिधि नहीं, केंद्र में रखना होगा।
न्याय केवल अदालत का फैसला नहीं, पीड़ितों की जीवन गुणवत्ता में सुधार भी है।
त्रासदी नहीं दोहराई जानी चाहिए
भोपाल सिर्फ एक शहर का नाम नहीं—यह हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी और चेतना की कसौटी है।
यदि हम अभी भी नहीं जागे, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ़ नहीं करेंगी।
इस वर्षगाँठ पर हमें यह स्वीकारना होगा कि मानव जीवन की सुरक्षा ही राष्ट्र की असली प्रगति है।
भोपाल के पीड़ित आज भी न्याय, सम्मान और स्वस्थ जीवन की उम्मीद में खड़े हैं। उनके संघर्ष को सलाम, और उस रात खोए हर जीवन को विनम्र श्रद्धांजलि।