भारत और अमेरिका के रिश्ते बीते तीन दशकों में तेजी से बदले हैं। एक समय था जब दोनों देशों के बीच अविश्वास, मतभेद और शीतयुद्ध की राजनीति छाई रहती थी। लेकिन आज स्थिति बिल्कुल अलग है। अमेरिका भारत को एशिया-प्रशांत क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार मानता है, वहीं भारत को भी अपने विकास, व्यापार, तकनीक और सुरक्षा हितों के लिए अमेरिका की साझेदारी की ज़रूरत है। इसी बीच कांग्रेस सांसद शशि थरूर का हालिया बयान भारतीय-अमेरिकी (Indian-American) समुदाय की भूमिका को एक बार फिर चर्चा में ले आया है।
थरूर ने कहा कि अमेरिका द्वारा हाल ही में उठाए गए सख्त कदमों—जैसे H-1B वीज़ा फीस में भारी बढ़ोतरी, भारतीय निर्यातों पर टैरिफ, और ईरान के चाबहार पोर्ट प्रोजेक्ट पर अप्रत्यक्ष दबाव—के बावजूद भारतीय-अमेरिकी (Indian-American)प्रवासी समुदाय चुप है। उनका सवाल था: “इतना बड़ा और प्रभावशाली समुदाय होते हुए भी भारतीय-अमेरिकी इन मुद्दों पर आवाज़ क्यों नहीं उठा रहा?”
यह सवाल सिर्फ थरूर का नहीं है, बल्कि एक व्यापक विमर्श की मांग करता है—क्या सचमुच भारतीय-अमेरिकी (Indian-American) समुदाय भारत के हितों की रक्षा में उतना मुखर नहीं है जितना होना चाहिए?
भारतीय-अमेरिकी (Indian-American) समुदाय की ताकत
भारतीय-अमेरिकी (Indian-American) आज अमेरिका में सबसे सफल प्रवासी समूहों में गिने जाते हैं।
- अमेरिका की कुल जनसंख्या का लगभग 1.5% भारतीय मूल का है (लगभग 50 लाख से अधिक)।
- इनकी औसत आय, शिक्षा और पेशेवर सफलता अमेरिकी औसत से कहीं अधिक है।
- गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, एडोबी जैसी कंपनियों के सीईओ भारतीय मूल के हैं।
- राजनीति में भी भारतीय-अमेरिकी तेजी से आगे बढ़े हैं—अमी बेरा, रो खन्ना, प्रमिला जयपाल, राज कृष्णामूर्ति जैसे सांसद अमेरिकी कांग्रेस में भारत की आवाज़ बने हुए हैं।
- उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भारतीय पृष्ठभूमि ने इस समुदाय की दृश्यता को और बढ़ा दिया।
इतनी बड़ी जनसंख्या, आर्थिक ताकत और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के बावजूद यदि भारतीय-अमेरिकी किसी मुद्दे पर सामूहिक दबाव नहीं बना पा रहे, तो यह गंभीर सवाल है।
भारतीय-अमेरिकी (Indian-American) प्रवासियों की चुप्पी के कारण
- पहचान का संकट
भारतीय-अमेरिकी अक्सर अपनी पहचान को “अमेरिकन” बनाए रखने में ज्यादा सतर्क रहते हैं। वे नहीं चाहते कि उन पर “ड्यूल लॉयल्टी” यानी दोहरी निष्ठा का आरोप लगे। यही कारण है कि कई बार वे भारत के पक्ष में खुलकर बोलने से बचते हैं। - हितों का टकराव
अमेरिका में बसे अधिकांश भारतीय आईटी सेक्टर, मेडिकल प्रोफेशन और बिजनेस में हैं। वे अमेरिकी नीतियों से सीधे प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिए—H-1B वीज़ा फीस बढ़ने का असर उन पर पड़ता है, लेकिन वे इसे “भारत बनाम अमेरिका” का मुद्दा न बनाकर व्यक्तिगत करियर का मामला मानते हैं। - संगठनात्मक कमजोरी
भारतीय-अमेरिकी समुदाय में एकता की कमी है। धर्म, भाषा और क्षेत्रीय आधार पर बंटा हुआ यह समुदाय कई अलग-अलग संगठनों में बिखरा है। इसके मुकाबले यहूदी या आयरिश प्रवासी बहुत संगठित हैं और एक आवाज़ में अमेरिकी राजनीति पर असर डालते हैं। - भारत की आंतरिक राजनीति का प्रभाव
कई भारतीय-अमेरिकी भारत की घरेलू राजनीति से जुड़े मुद्दों पर बंटे हुए हैं। कोई भाजपा का समर्थक है, कोई कांग्रेस का, तो कोई वामपंथी दृष्टिकोण रखता है। इस आंतरिक विभाजन के कारण वे अमेरिकी प्रशासन पर सामूहिक दबाव नहीं बना पाते। - अमेरिकी राजनीतिक तंत्र की समझ का अभाव
हालांकि भारतीय-अमेरिकी (Indian-American) शिक्षित और सफल हैं, लेकिन अमेरिकी “लॉबिंग सिस्टम” को समझने और उसका इस्तेमाल करने में वे पीछे रह जाते हैं। जहां यहूदी समुदाय AIPAC जैसी संस्थाओं के ज़रिए नीति-निर्माण पर सीधा असर डालता है, वहीं भारतीय समुदाय की कोई उतनी मज़बूत लॉबिंग संस्था नहीं है।
भारत-अमेरिका (Indian-American)संबंधों की हालिया चुनौतियाँ
थरूर की चिंता उस समय सामने आई जब भारत-अमेरिका संबंधों में कुछ तनाव दिखाई दिए।
- H-1B वीज़ा फीस
अमेरिका ने नए H-1B वीज़ा आवेदनों पर एकमुश्त 1,00,000 डॉलर की अतिरिक्त फीस लगाने का प्रस्ताव दिया। इसका सीधा असर भारतीय पेशेवरों और आईटी कंपनियों पर पड़ता है, क्योंकि इन वीज़ाओं का सबसे बड़ा उपयोग भारतीय करते हैं। - भारतीय निर्यातों पर टैरिफ
अमेरिका ने भारतीय परिधान, आभूषण और रत्न उद्योग पर उच्च शुल्क लगा दिए। यह उन छोटे और मध्यम उद्योगों को प्रभावित करता है जो भारत से अमेरिकी बाजार पर निर्भर हैं। - ईरान और चाबहार पोर्ट
अमेरिका के ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों से भारत के चाबहार पोर्ट प्रोजेक्ट पर असर पड़ता है। यह प्रोजेक्ट भारत के लिए न सिर्फ व्यापारिक, बल्कि रणनीतिक दृष्टि से भी अहम है, क्योंकि यह अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुँचने का रास्ता खोलता है। - मानवाधिकार और लोकतंत्र पर दबाव
हाल के वर्षों में अमेरिकी कांग्रेस में भारत की मानवाधिकार स्थिति, धार्मिक स्वतंत्रता और कश्मीर नीति पर भी सवाल उठते रहे हैं। यह मुद्दे द्विपक्षीय रिश्तों को तनावपूर्ण बनाते हैं।
भारतीय-अमेरिकी (Indian-American)प्रवासी क्या कर सकते हैं?
थरूर ने बिल्कुल सही कहा कि प्रवासी समुदाय को और अधिक मुखर होना होगा। सवाल है कि यह कैसे संभव है?
- संगठित लॉबिंग
भारतीय-अमेरिकी समुदाय को यहूदी या आयरिश समुदाय से सीख लेकर एक संगठित लॉबिंग ग्रुप बनाना होगा, जो अमेरिकी कांग्रेस और प्रशासन पर प्रभाव डाल सके। - नीति-निर्माताओं से संवाद
प्रवासी समुदाय अपने स्थानीय सांसदों और सीनेटरों से मिलकर भारत से जुड़े मुद्दों पर जानकारी दे सकता है। जैसे कि थरूर ने कहा—“किसी महिला सांसद ने बताया कि उन्हें किसी भी भारतीय-अमेरिकी मतदाता का फोन नहीं आया।” इसका मतलब है कि भारतीय-अमेरिकी मतदाता अपने प्रतिनिधियों से संवाद नहीं कर रहे। - मीडिया और थिंक टैंक्स में सक्रियता
भारतीय-अमेरिकी विशेषज्ञों को अमेरिकी मीडिया, विश्वविद्यालयों और थिंक टैंक्स में भारत के पक्ष को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करना चाहिए। - भारत की आंतरिक राजनीति से ऊपर उठना
प्रवासी समुदाय को यह समझना होगा कि अमेरिका में उनका एकमात्र एजेंडा भारत के हित होने चाहिए, न कि भाजपा बनाम कांग्रेस जैसी घरेलू बहस। - युवा पीढ़ी को जोड़ना
भारतीय-अमेरिकी युवाओं को अपनी जड़ों से जोड़ना और उन्हें भारत-अमेरिका संबंधों की अहमियत समझाना ज़रूरी है। तभी वे भविष्य में प्रभावी भूमिका निभा पाएंगे।
भविष्य की संभावनाएँ
भारत और अमेरिका (Indian-American) के रिश्ते सिर्फ आर्थिक या सुरक्षा तक सीमित नहीं हैं। इनका आधार लोकतंत्र, मूल्यों और साझा हितों पर है।
- रणनीतिक साझेदारी: इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन की बढ़ती शक्ति को देखते हुए भारत और अमेरिका की नजदीकी अनिवार्य है।
- टेक्नोलॉजी और इनोवेशन: आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग और स्पेस टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में दोनों देशों का सहयोग भविष्य की कुंजी है।
- शिक्षा और अनुसंधान: लाखों भारतीय छात्र अमेरिका में पढ़ाई करते हैं। यह शैक्षिक पुल दोनों देशों को जोड़ता है।
- ऊर्जा और पर्यावरण: स्वच्छ ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन पर साझेदारी दोनों देशों के लिए दीर्घकालिक महत्व रखती है।
इन सब में भारतीय-अमेरिकी समुदाय एक ब्रिज यानी सेतु की तरह है। यदि यह समुदाय और मुखर हो, तो दोनों देशों के रिश्ते और मज़बूत हो सकते हैं।
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शशि थरूर का बयान एक चेतावनी और सुझाव दोनों है। भारतीय-अमेरिकी (Indian-American) समुदाय आर्थिक और राजनीतिक रूप से मजबूत है, लेकिन अभी भी अमेरिकी नीति-निर्माण पर उनका असर सीमित है। अगर वे संगठित होकर बोलें, अपने सांसदों पर दबाव डालें और भारत के मुद्दों को अमेरिकी राजनीति में मुख्यधारा तक ले जाएँ, तो भारत-अमेरिका संबंधों की मौजूदा चुनौतियों को अवसर में बदला जा सकता है।
भारत की प्रगति और सुरक्षा केवल भारत के भीतर की नीतियों से तय नहीं होगी, बल्कि उन प्रवासियों की भूमिका से भी तय होगी जो दुनिया की सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र में रहते हैं। इसलिए अब वक्त है कि भारतीय-अमेरिकी (Indian-American) अपनी चुप्पी तोड़ें और अपनी मातृभूमि के लिए अधिक मुखर हों।