न्यायपालिका पर दबाव: क्या अब अदालतें भी फोन कॉल से तय होंगी?

मध्यप्रदेश हाई कोर्ट, जबलपुर में अवैध खनन से जुड़े मामले की सुनवाई अचानक उस समय सुर्खियों में आ गई, जब न्यायमूर्ति विशाल मिश्रा ने खुद को इस केस से अलग कर लिया। वजह थी—भाजपा विधायक संजय पाठक का न्यायाधीश से सीधे फ़ोन पर संपर्क साधने की कोशिश।

न्यायमूर्ति मिश्रा ने इस बात का उल्लेख अपनी ऑर्डर शीट में दर्ज कर दिया और साफ कहा कि अब वह इस मामले की सुनवाई करने के इच्छुक नहीं हैं। यह घटना केवल एक मुकदमे तक सीमित नहीं रह गई, बल्कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और राजनीति के हस्तक्षेप पर गंभीर सवाल खड़े कर रही है।

मामला क्या है?

कटनी निवासी आशुतोष दीक्षित ने बड़ी मात्रा में अवैध खनन की शिकायत आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ (EOW) में की थी। आरोप था कि तय समयसीमा के भीतर जांच पूरी नहीं हुई और कार्रवाई में लापरवाही बरती गई। इसी कारण उन्होंने हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया।
इस याचिका में विधायक संजय पाठक को पक्षकार नहीं बनाया गया था। बावजूद इसके, पाठक और उनके परिवार के सदस्यों ने हस्तक्षेप आवेदन देकर अपनी बात रखने की अनुमति माँगी। यहीं से विवाद गहराया और फोन कॉल की घटना सामने आई।

न्यायिक स्वतंत्रता पर सवाल

भारत के संविधान का बुनियादी ढाँचा न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर टिका है। अगर किसी विधायक का फ़ोन कॉल किसी जज को केस से अलग होने के लिए मजबूर कर सकता है, तो यह संकेत है कि दबाव और हस्तक्षेप किस हद तक गहराए हुए हैं।

क्या यह न्यायाधीशों के निर्णय लेने की स्वतन्त्रता पर सीधा हमला नहीं है?

क्या यह भविष्य में गवाहों और याचिकाकर्ताओं को यह संदेश नहीं देता कि राजनीतिक रसूख अदालत तक पहुँच सकता है?


राजनीति और खनन का गठजोड़

मध्यप्रदेश में अवैध खनन लंबे समय से राजनीति और प्रशासन के गठजोड़ का प्रतीक माना जाता रहा है। जब शिकायतकर्ता न्याय की तलाश में अदालत जाता है और वहीं राजनीतिक हस्तक्षेप की आशंका जन्म लेती है, तो यह पूरा तंत्र कटघरे में खड़ा होता है।

आगे की चुनौती

अब मामला चीफ जस्टिस के पास गया है, जो यह तय करेंगे कि सुनवाई किस बेंच में होगी। लेकिन असली सवाल यह है कि:

क्या केवल बेंच बदलने से न्यायपालिका पर से दबाव का साया हट जाएगा?

या फिर इस घटना को एक उदाहरण मानकर राजनीतिक हस्तक्षेप के खिलाफ ठोस कदम उठाने होंगे?


यह प्रकरण हमें याद दिलाता है कि न्याय केवल अदालत के आदेशों से नहीं, बल्कि अदालत के विश्वास और स्वतंत्रता से भी जीवित रहता है। अगर न्यायमूर्ति को फोन कॉल जैसे हस्तक्षेप का ज़िक्र अपनी ऑर्डर शीट में दर्ज करना पड़े, तो यह संकेत है कि न्यायपालिका पर दबाव का खतरा वास्तविक है, काल्पनिक नहीं।

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