
भारत की ग्रामीण रोजगार नीति में सरकार ने ऐसा हस्तक्षेप किया है, जिसकी गूंज दूर तक सुनाई देगी। ‘विकसित भारत – रोजगार और आजीविका गारंटी मिशन (ग्रामीण) अधिनियम, 2025’ केवल मनरेगा का नया संस्करण नहीं है, बल्कि यह उस दर्शन का पुनर्लेखन है, जिस पर पिछले बीस वर्षों से ग्रामीण रोजगार की बुनियाद टिकी हुई थी।
मनरेगा का जन्म एक स्पष्ट संवैधानिक विचार से हुआ था—काम का अधिकार मांग पर मिले। नया कानून इस मूल विचार को बनाए रखते हुए भी उसकी आत्मा को अलग दिशा में ले जाता दिखाई देता है।
125 दिन का वादा: विस्तार या पुनर्परिभाषा?
पहली नजर में 100 से बढ़ाकर 125 दिन की रोजगार गारंटी एक प्रगतिशील कदम प्रतीत होता है। ग्रामीण परिवारों की आय सुरक्षा को देखते हुए यह फैसला स्वागत योग्य है। पर सवाल यह है कि क्या यह वृद्धि वास्तविक होगी या कागज़ी?
मनरेगा में यदि किसी राज्य में काम की मांग बढ़ती थी, तो केंद्र को बजट बढ़ाना पड़ता था। नया कानून इस लचीलापन को समाप्त कर देता है। अब केंद्र सरकार राज्यवार आवंटन तय करेगी और वही अंतिम सीमा होगी।
यानी दिन बढ़े, लेकिन बजट बंधा रहे—तो रोजगार की गारंटी कितनी व्यावहारिक रह जाएगी?

मांग आधारित से सप्लाई आधारित मॉडल: नीतिगत यू-टर्न
मनरेगा की सबसे बड़ी ताकत उसकी मांग आधारित प्रकृति थी। ग्रामीण गरीब तय करता था कि उसे काम चाहिए। नया कानून इस अधिकार को सैद्धांतिक रूप से बरकरार रखते हुए भी व्यवहार में उसे केंद्र के बजटीय और भौगोलिक निर्णयों पर निर्भर कर देता है।
यह बदलाव सिर्फ प्रशासनिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और संघीय संतुलन से जुड़ा हुआ है। राज्यों की भूमिका अब कार्यान्वयन एजेंसी से अधिक कुछ नहीं रह जाती।
केंद्र का बढ़ता नियंत्रण
नए कानून के तहत केंद्र न केवल यह तय करेगा कि किस राज्य को कितना पैसा मिलेगा, बल्कि यह भी कि कहां रोजगार दिया जाएगा। मनरेगा जहां पूरे देश के लिए यूनिवर्सल था, वहीं नया कानून नोटिफाइड क्षेत्रों तक सीमित होगा।
यह सवाल अनिवार्य हो जाता है—
क्या ग्रामीण गरीबी अब भौगोलिक चयन का विषय बनेगी?
संविधान के संघीय ढांचे में यह बदलाव राज्यों की वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता को सीमित करता है, जिसे लेकर संसद में तीखी बहस तय है।
ग्रामीण रोजगार से ग्रामीण परिवर्तन तक
नए कानून का सकारात्मक पहलू यह है कि यह रोजगार को सिर्फ गड्ढा खोदने और भरने की प्रक्रिया तक सीमित नहीं रखता।

जल सुरक्षा, ग्रामीण अवसंरचना, आजीविका ढांचा और आपदा प्रबंधन—इन चार स्तंभों पर आधारित ढांचा ग्रामीण अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक परिवर्तन की संभावना दिखाता है।
विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन और आपदा प्रबंधन पर दिया गया जोर इस कानून को समयानुकूल बनाता है। मनरेगा के समय यह मुद्दा इतना केंद्रीय नहीं था।
खेती के मौसम में काम पर रोक
खेती के पीक सीजन में 60 दिन तक काम रोकने का फैसला किसानों की मांग के अनुरूप हो सकता है, लेकिन यह भूमिहीन मजदूरों के लिए गंभीर संकट भी पैदा कर सकता है।
कृषि मजदूरी अस्थिर है और मनरेगा जैसे कार्यक्रम ऐसे समय में सुरक्षा कवच का काम करते थे। सवाल है—
क्या सरकार ने इस सामाजिक प्रभाव का पर्याप्त आकलन किया है?
डिजिटल पारदर्शिता या डिजिटल निर्भरता?
AI आधारित ऑडिट, बायोमेट्रिक उपस्थिति और रियल-टाइम डैशबोर्ड पारदर्शिता बढ़ा सकते हैं, लेकिन ग्रामीण भारत की डिजिटल असमानता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
यदि तकनीक बाधा बन गई, तो सबसे कमजोर वर्ग फिर हाशिये पर चला जाएगा।
पंचायतें: व्यवस्था की धुरी या कमजोर कड़ी?
सरकार ने ग्राम पंचायत को योजना की आधारशिला बताया है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि अधिकांश पंचायतें:
तकनीकी रूप से कमजोर
मानव संसाधन की कमी से जूझती
जटिल प्लानिंग ढांचे के लिए अपर्याप्त रूप से तैयार
बिना व्यापक क्षमता निर्माण के यह कानून कागज़ों में भव्य और जमीन पर बोझ बन सकता है।
सुधार या पुनर्संरचना?
यह कानून न तो पूरी तरह जनविरोधी है, न ही निर्विवाद रूप से जनहितैषी।
यह रोजगार की गारंटी को विकास की रणनीति में बदलने का प्रयास है, लेकिन इसकी कीमत केंद्रीकरण और लचीलापन खोने के रूप में चुकानी पड़ सकती है।
मनरेगा ने ग्रामीण भारत को संकट के समय सहारा दिया था। अब नया कानून दावा कर रहा है कि वह ग्रामीण भारत को स्थायी विकास की राह दिखाएगा।
सवाल सिर्फ इतना है—क्या गारंटी अधिकार के रूप में बचेगी, या योजना बनकर सिमट जाएगी?