गांधी व्यक्ति नहीं, एक विचार

गांधीजी पल-पल विकसित होते रहे, यह भली-भांति समझ लेने की बात है। अगर हम इसे नहीं समझेंगे तो गांधीजी को जरा भी नहीं समझ सकेंगे। वे तो रोज-रोज बदलते, पल-पल विकसित होते रहे हैं। यह आदमी ऐसा नहीं था कि पुरानी किताब के संस्मरण ही निकालता रहे। कोई नहीं कह सकता कि आज वे होते तो कैसा मोड़ लेते। उन्होंने अमुक समय, अमुक बात कही थी, इसलिए आज भी वैसे काम को आशीर्वाद ही देंगे, ऐसा अनुमान लगाना अपने मतलब की बात होगी। मैं कहना चाहता हूं कि ऐसा अनुमान लगाने का किसी को हक नहीं। ‘लोकोत्तराणा चेतांसि को हि विज्ञातु-मर्हति’- लोकोत्तर पुरुष के चित की थाह कौन पा सकता है? इसलिए गांधीजी आज होते तो क्या करते और क्या न करते, इस तरह नहीं सोचना चाहिए।

यदि हम यह नहीं समझते, तो हम गांधीजी के साथ बहुत अन्याय करेंगे। उनसे हमें एक विचार मिल गया है, ऐसा समझकर अब हमें स्वतंत्र चिन्तन करना है। यदि हम उनके विचार को उनके शब्दों में और उनके कार्यों से सीमित कर डालेंगे, तो उनके साथ अन्याय कर बैठेंगे। गुजरात में जिसे ‘वेदिया’ कहते हैं, वैसे ‘वेदिया’ अर्थात शब्द को पकड़कर रखने वाले हम बन जायेंगे, तो गांधीजी के साथ अन्याय करेंगे।

स्थूल छोड़ो, सूक्ष्म पकड़ो – हमें महापुरूषों के विचार ही ग्रहण करने चाहिए, उनके स्थूल जीवन को न पकड़ रखें। ऐसा एक शास्त्र-वचन भी है। उसमें कहा गया है कि हमें महापुरूषों के वचनों का चिन्तन करना चाहिए, उनके स्थूल चरित्र का नहीं। इतना ही नहीं, वचनों का भी, जो उतम-से-उतम अर्थ हो सके, वही ग्रहण करें। इससे साफ है कि वचनों का जो कुछ सूक्ष्म-से-सूक्ष्म और शुद्ध-से-शुद्ध अर्थ निकलता हो, वही ग्रहण करना चाहिए। आज के विज्ञान युग में पुराणकाल का मनु और पुराना मार्क्स नहीं चलेगा। मैं नम्रतापूर्वक कहना चाहता हूं कि गांधी भी आज ज्यों-का-त्यों नहीं चलेगा।

तब यह प्रश्न खड़ा होगा कि क्या आप गांधीजी से भी आगे बढ़ गये? तो हममें अत्यन्त नम्रतापूर्वक यह कहने का साहस होना चाहिए कि ‘हम गांधीजी के जमाने से आगे ही हैं।’ इसमें गांधीजी से आगे बढ़ जाने का

सवाल ही नहीं और न ऐसा करने की जरूरत ही है। बढ़े या घटे, यह तो भगवान तौलेगा। यह हमारे हाथ की बात नहीं। हमें उनसे बढ़ने की जरूरत नहीं, लेकिन हमारा जमाना उनके जमाने से आगे है। हमारे सामने नये दर्शन (क्षितिज) खड़े हो गये हैं। हमें यह समझना ही होगा। न समझेंगे तो जो काम करने की जवाबदारी हम पर आ पड़ी है, उसे हम निभा नहीं पायेंगे।

गांधीजी स्वयं तो इतने संवेदनशील थे कि नित्य-निरंतर परिस्थिति के अनुसार झट बदलते जाते थे। कभी भी एक शब्द से चिपके नहीं रहते थे। किसी को भी ऐसा भरोसा नहीं था कि आज गांधीजी ने यह रास्ता पकड़ा है, तो कल कौन-सा पकड़ेंगे, क्योंकि वे विकासशील पुरुष थे। उनका मन सदैव सत्य के शोध के विचार में ही रहता था। तो, मुझे कहना यह है कि गांधीजी सतत् परिवर्तनशील थे। इसलिए हमें आज की परिस्थिति के अनुसार स्वतंत्र चिंतन करते रहना चाहिए।

इस लेख के लेखक आचार्य विनोबा भावे हैं, वह भूदान आंदोलन के प्रणेता हैं।

(सप्रेस)

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