डॉलर की उड़ान, रुपये की आह — और हम “अच्छे दिनों” की तलाश में

देश में डॉलर फिर चढ़ गया है। चढ़े भी क्यों न —रुपया तो इतना विनम्र हो चुका है कि हर विदेशी मुद्रा के सामने झुकना इसका राष्ट्रीय चरित्र बन गया है।
डॉलर को देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी VIP को लाल कालीन बिछा दी गई हो और रुपया उस कालीन का कोना पकड़कर खड़ा हो—
“सर, जरा धीरे चलिए, मेरी इज्ज़त भी साथ ही जा रही है…”

सरकारी बयान आते ही हैं—
“घबराइए मत, यह वैश्विक कारण हैं।”
मानो हम वैश्विक कारणों के स्थायी किरायेदार हों।
ज़रा पूछिए—जब वैश्विक परिस्थितियाँ खराब होती हैं तो हम डूब क्यों जाते हैं,
और जब अच्छी होती हैं तो हम फिर भी तैर नहीं पाते?

डॉलर उछल रहा है,महंगाई मुस्कुरा रही है और हमारा रुपया अपनी पुरानी आदत निभा रहा है—मुलायम गिरावट, लगातार, बिना शोर किए।
अर्थव्यवस्था के पहरेदार कहते हैं—
“अर्थव्यवस्था मजबूत है।”
बिल्कुल!
बस एक छोटा-सा सवाल—अगर घर इतना मजबूत है तो छत हर महीने क्यों टपकती है?

गिरते रुपये पर हमारी प्रतिक्रिया भी अनोखी है—चाय की दुकान पर चर्चा,
व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी का सर्टिफिकेट,
और कुछ नेताओं का यह कहना कि
“डॉलर में कुछ खास नहीं, रुपया हमारा संस्कारी है, इसलिए संयमित रहता है।”
जी हाँ,संयमित तो है—इसलिए चुपचाप गिरता जाता है।

देश को अब बहानों की नहीं,
हिम्मत वाले आर्थिक फैसलों की जरूरत है।वरना डॉलर का ग्राफ ऊपर जाएगा और हम नीचे…हमेशा की तरह।

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