“हम आरक्षण (Reservation) के पक्ष में हैं, संविधान में जो कुछ भी प्रावधान है, उसके हम पूर्ण रूप से पालन के लिए प्रतिबद्ध हैं।” यह बयान किसी समाजवादी नेता का नहीं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के एक वरिष्ठ नेता का है। यह वही पार्टी है जिसके राजनीतिक डीएनए में एक बार ‘एक देश, एक संस्कृति’ का नारा रचा-बसा था। आज, जब एक सवर्ण युवा यह कहता है कि “बीजेपी का आरक्षण (Reservation) को समर्थन सही नहीं है, यह सवर्णों के साथ नाइंसाफी है,” तो वह सिर्फ एक व्यक्ति की व्यथा नहीं, बल्कि एक बड़े सामाजिक-राजनीतिक भूचाल की आहट है।

यह सवाल केवल न्याय या अन्याय का नहीं, बल्कि उस रणनीति का है जिसने भारतीय राजनीति के पुराने समीकरणों को ध्वस्त कर दिया है। क्या बीजेपी का आरक्षण समर्थन राजनीतिक विवशता है, सत्ता का अपरिहार्य समीकरण है, या फिर एक सोची-समझी सामाजिक इंजीनियरिंग?
बीजेपी का आरक्षण (Reservation) सफर – विरोध से ‘रणनीतिक समर्थन’ तक
बीजेपी का आरक्षण के प्रति रवैया एक स्थिर लकीर नहीं, बल्कि एक dynamic प्रक्रिया रहा है।
- विरासत में विरोध का भाव: बीजेपी और उसके पूर्ववर्ती संगठनों की जड़ें उस विचारधारा में हैं जो ‘अखंड भारत’ और ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ पर जोर देती थी। इस नजरिए से, आरक्षण जैसी पहल कभी-कभी समाज को विभाजित करने वाली लगती थी। मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद के दशक में, बीजेपी ने ‘कमंडल’ (मंदिर आंदोलन) की राजनीति के जरिए हिंदू वोटों का एकीकरण किया, जिसमें आरक्षण एक विभाजनकारी मुद्दा था।
- रणनीतिक पलटी और नया समीकरण: 2014 एक निर्णायक मोड़ था। बीजेपी ने महसूस किया कि सिर्फ सवर्ण हिंदू वोटों से सत्ता में वापसी मुश्किल है। उसने OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) और दलित समुदायों में सीधी पैठ बनाने की रणनीति अपनाई। इस रणनीति का एक अहम स्तंभ था – आरक्षण के प्रति ‘संवैधानिक समर्थन’ की स्पष्ट और जोरदार घोषणा। उन्होंने इसे ‘सामाजिक न्याय’ के अपने संस्करण से जोड़ा।
- EWS आरक्षण: मास्टरस्ट्रोक या जुगाड़? 2019 में 10% आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों (EWS) के लिए आरक्षण का प्रावधान बीजेपी की सबसे चतुर राजनीतिक चालों में से एक थी। इसने एक ओर सवर्ण वोट बैंक को यह संदेश दिया, “देखो, हम तुम्हारी चिंता समझते हैं,” और दूसरी ओर, यह दावा किया कि वे मौजूदा SC/ST/OBC आरक्षण में कोई छेड़छाड़ नहीं कर रहे। इसने ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे को एक ठोस आकार दिया और सवर्णों की नाराजगी को एक वैकल्पिक रास्ता दिखाया।
“यह सवर्णों के साथ नाइंसाफी है” – एक गहरी, वैध पीड़ा का स्वर
सवर्ण समुदाय की यह आक्रोश भरी टिप्पणी केवल राजनीतिक विरोध का नारा नहीं, बल्कि एक सामाजिक-आर्थिक चिंता का प्रतीक है। इसके पीछे कई परतें हैं:
- ‘मेरिट’ का संकट: एक सवर्ण युवा, जिसने दिन-रात एक करके प्रतियोगी परीक्षा में 95% अंक प्राप्त किए, वह देखता है कि एक निश्चित श्रेणी में 70% अंक लाने वाला उम्मीदवार उससे पहले सीट हासिल कर लेता है। उसके लिए, यह ‘मेरिट’ की हत्या और उसके परिश्रम का मजाक उड़ाना है। यह भावना उसे आरक्षण के मूल उद्देश्य – ऐतिहासिक अन्याय के सुधार – से दूर ले जाती है।
- ‘सामूहिक जिम्मेदारी’ का बोझ: कई सवर्ण युवा यह तर्क देते हैं, “मेरे पूर्वजों ने किसी का शोषण नहीं किया। मैं खुद मध्यमवर्गीय परिवार से आता हूं। फिर मुझे ही सदियों पुराने पापों की सजा क्यों भुगतनी पड़ रही है?” वे स्वयं को एक ऐसी लड़ाई का पात्र मानते हैं जो उन्होंने कभी नहीं लड़ी।
- आर्थिक संकट और सीमित अवसर: शहरीकरण, महंगाई और नौकरियों के सीमित दायरे ने सवर्ण मध्यम वर्ग को भी गहरी मार मारी है। उन्हें लगता है कि सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा के द्वार उनके लिए तेजी से संकरे होते जा रहे हैं, जबकि उन पर भी टैक्स का बोझ और पारिवारिक जिम्मेदारियां उतनी ही हैं।
- पहचान का संकट: एक तरफ, उन्हें ‘विशेषाधिकार प्राप्त’ और ‘शोषक’ का तमगा लगाया जाता है, तो दूसरी तरफ, वे स्वयं को प्रतिस्पर्धा में पिछड़ता हुआ पाते हैं। इससे एक अजीब सा मनोवैज्ञानिक संकट पैदा होता है – वे न तो ‘विशेषाधिकार’ का लाभ उठा पा रहे हैं, न ही ‘वंचित’ का दर्जा पा रहे हैं।
क्या बीजेपी का रुख सही है? दो पाठ्यपुस्तकों के बीच की कहानी
इस सवाल का कोई सीधा ‘हां’ या ‘ना’ में जवाब नहीं है। यह इस पर निर्भर करता है कि आप किस नजरिए से देख रहे हैं।
सही है, यदि देखा जाए…
- राजनीतिक यथार्थवाद के नजरिए से: भारत एक लोकतंत्र है और इसमें सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व जरूरी है। बीजेपी ने समझा कि बिना OBC और दलित समर्थन के सत्ता में टिके रहना असंभव है। आरक्षण का समर्थन इसी राजनीतिक यथार्थवाद की उपज है।
- सामाजिक स्थिरता के नजरिए से: आरक्षण को हटाने या कमजोर करने का प्रयास देश में एक अभूतपूर्व सामाजिक उथल-पुथल पैदा कर सकता है। बीजेपी का इसे बनाए रखने का रुख, एक हद तक, सामाजिक शांति बनाए रखने में मददगार रहा है।
- EWS के जरिए समावेश के नजरिए से: EWS आरक्षण ने आरक्षण की बहस को जाति के दायरे से निकालकर आर्थिक आधार तक पहुंचाया है। यह एक प्रगतिशील कदम माना जा सकता है जिसने सवर्ण गरीबों को राहत देने का प्रयास किया।
गलत है, यदि देखा जाए…
- विचारधारा के नजरिए से: बीजेपी के मूल ‘integral humanism’ जैसे सिद्धांत, जो एक समरस समाज की बात करते हैं, आरक्षण जैसी ‘विशेष सुविधा’ की अवधारणा से टकराते हैं। इसलिए, कट्टरपंथी समर्थक इसे सिद्धांतों से समझौता मानते हैं।
- सवर्णों के ‘विश्वासघात’ के नजरिए से: बीजेपी के पारंपरिक समर्थक रहे सवर्ण वर्ग को लगता है कि पार्टी ने सत्ता पाने के लिए उनके ‘हितों’ को त्याग दिया है। वे EWS आरक्षण को एक ‘सांत्वना पुरस्कार’ मानते हैं, जबकि मुख्य SC/ST/OBC आरक्षण बरकरार है।
- समाधान से दूरी के नजरिए से: आलोचकों का मानना है कि बीजेपी आरक्षण को बनाए रखकर केवल लक्षणों का इलाज कर रही है, बीमारी का नहीं। असली समाधान शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार और अर्थव्यवस्था में इतने रोजगार पैदा करना है कि आरक्षण की आवश्यकता ही कम हो जाए।
एक अधूरी कहानी का अंतिम अध्याय अभी लिखा जाना बाकी है
बीजेपी का आरक्षण (Reservation) समर्थन सही है या गलत, यह एक सरल प्रश्न नहीं है। यह एक रणनीतिक सही है, जो सत्ता के समीकरणों को समझता है। यह एक सिद्धांत का दावेपूर्ण समझौता भी है, जो अपने मूल समर्थकों में भ्रम पैदा करता है।
सवर्णों की ‘नाइंसाफी’ की भावना भी उतनी ही वास्तविक और गहरी है। यह केवल एक अधिकार खोने का डर नहीं, बल्कि एक नए सामाजिक दबाव में खुद को असहाय पाने की पीड़ा है।
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अंततः, यह पूरी बहस हमें एक ही दिशा में इशारा करती है: आरक्षण एक ‘लक्ष्य’ नहीं, बल्कि एक ‘साधन’ था। उस साधन को स्थायी बना दिया गया है। बीजेपी की राजनीति ने इस स्थायित्व को और मजबूत किया है। जब तक देश शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय के ऐसे स्थायी मॉडल पर नहीं पहुंचता, जहां जाति किसी व्यक्ति के भाग्य का फैसला न करे, तब तक यह बहस और इसके साथ जुड़ी ‘नाइंसाफी’ की भावना, दोनों बनी रहेंगी। बीजेपी का रुख इस जटिल समस्या का समाधान नहीं, बल्कि उसका प्रबंधन है। और किसी भी प्रबंधन में, किसी न किसी पक्ष को यह महसूस होना तय है कि उसके साथ ‘नाइंसाफी’ हुई है।