राजस्थान पुलिस द्वारा मध्य प्रदेश के दो पत्रकारों — आनंद पांडेय और हरीश दिवेकर — की गिरफ्तारी ने एक बार फिर यह प्रश्न जीवित कर दिया है कि क्या सत्ता के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले पत्रकारों (journalist) के साथ राज्य मशीनरी निष्पक्ष रह पाती है? सतह पर यह मामला “उगाही” और “भ्रामक खबर प्रसारण” जैसा प्रतीत होता है, लेकिन इसकी तह में लोकतंत्र की आत्मा को झकझोर देने वाले संवैधानिक प्रश्न छिपे हैं। यदि सवाल पूछने की कीमत गिरफ्तारी बन जाए, तो संविधान सिर्फ किताबों में रह जाएगा — ज़मीन पर नहीं। यह केवल दो पत्रकारों की गिरफ्तारी नहीं, बल्कि लोकतंत्र की साख और प्रेस स्वतंत्रता की परीक्षा है।

मामला क्या है?
दोनों पत्रकार (journalist) “द सूत्र” नामक यूट्यूब चैनल चलाते हैं। इनके खिलाफ राजस्थान की उपमुख्यमंत्री दीया कुमारी के कार्यालय से एक एफआईआर दर्ज कराई गई, जिसमें आरोप है कि उन्होंने दीया कुमारी के विरुद्ध भ्रामक रिपोर्टें प्रसारित कर आर्थिक लाभ प्राप्त करने का प्रयास किया।
शिकायत में कहा गया कि उन्होंने यह खबर चलाई कि दीया कुमारी ने कथित रूप से सरकारी भूमि पर कब्ज़ा किया है और प्रशासन मौन है। यह एफआईआर नरेंद्र सिंह राठौर द्वारा दर्ज कराई गई थी, जबकि कुछ रिपोर्टों में जिनेश जैन का नाम भी सामने आया है।
एफआईआर दर्ज होते ही राजस्थान पुलिस ने बिना देरी किए मध्य प्रदेश पहुंचकर दोनों पत्रकारों (journalist) को हिरासत में लिया और जयपुर ले आई। यहीं से शुरू होती है इस कार्रवाई की संवैधानिक पड़ताल।
BNSS और संविधान के आलोक में गिरफ्तारी की वैधता
नई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS-2023) और भारतीय संविधान की दृष्टि से यह गिरफ्तारी कई स्तरों पर प्रश्नचिह्न खड़े करती है।
1. BNSS की धारा 35 का उल्लंघन
धारा 35 के अनुसार, जब कोई अपराध गैर-गंभीर (Non-Heinous) श्रेणी में आता है और आरोपी जांच में सहयोग के लिए उपलब्ध है, तो पुलिस को पहले नोटिस जारी करना अनिवार्य है।
यहाँ ऐसा कोई “Notice of Appearance” जारी नहीं हुआ। यानी गिरफ्तारी सीधे की गई, मानो राजनीतिक प्रभाव के आधार पर निर्णय लिया गया हो। यह संविधान की भावना “कानून के समक्ष समानता” (Article 14) का उल्लंघन है।
2. अंतरराज्यीय गिरफ्तारी में प्रक्रियात्मक खामी
जब किसी राज्य की पुलिस दूसरे राज्य में गिरफ्तारी करती है, तो स्थानीय पुलिस को अग्रिम सूचना देना अनिवार्य होता है। अब तक ऐसी कोई पुष्टि नहीं हुई कि मध्य प्रदेश पुलिस को पहले से सूचित किया गया था। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो यह न केवल संघीय ढांचे का उल्लंघन है, बल्कि न्यायिक अनुशासन पर भी आघात है।
3. मौलिक अधिकारों का संभावित हनन
संविधान के अनुच्छेद 22(1) के तहत हर गिरफ्तार व्यक्ति को यह जानने का अधिकार है कि उसे किस कारण से गिरफ्तार किया जा रहा है और वह वकील से परामर्श कर सकता है। रिपोर्टों से यह स्पष्ट नहीं कि पत्रकारों को ये अधिकार बताए गए थे या नहीं। यदि नहीं, तो यह गिरफ्तारी सीधे Article 22 और Article 21 (जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन है।
क्या “साइबर अपराध” का बहाना?
राजस्थान पुलिस ने कहा है कि यह मामला “साइबर उगाही” से जुड़ा है। लेकिन अब तक न कोई डिजिटल साक्ष्य, न कोई लेनदेन का प्रमाण सार्वजनिक हुआ है। यदि वीडियो या रिपोर्ट तथ्यहीन थे, तो सबसे पहले कंटेंट टेकडाउन नोटिस जारी होना चाहिए था — गिरफ्तारी नहीं। यह संकेत देता है कि राज्यसत्ता आलोचना को अपराध मानने की दिशा में बढ़ रही है।
सुप्रीम कोर्ट की स्पष्ट नजीरें
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार कहा है कि सत्ता की आलोचना देशद्रोह नहीं, नागरिक अधिकार है।
- Romesh Thapar vs State of Madras (1950) — प्रेस स्वतंत्रता लोकतंत्र की नींव है।
- Shreya Singhal vs Union of India (2015) — किसी भी ऑनलाइन अभिव्यक्ति को दमनकारी कानूनों से नहीं दबाया जा सकता।
- Arnesh Kumar vs State of Bihar (2014) — गिरफ्तारी तभी की जा सकती है जब यह जांच के लिए अपरिहार्य हो; अन्यथा यह मनमानी कार्रवाई मानी जाएगी।
इन नजीरों के प्रकाश में राजस्थान पुलिस की कार्रवाई संवैधानिक रूप से संदिग्ध प्रतीत होती है।
राजनीतिक प्रभाव का साया
मामले की संवेदनशीलता इस बात से भी स्पष्ट है कि शिकायत उपमुख्यमंत्री के कार्यालय से दर्ज कराई गई। फिर भी अब तक दीया कुमारी का कोई आधिकारिक बयान नहीं आया। जब शिकायत उनके दफ्तर से की गई है, तो तथ्यों का सार्वजनिक स्पष्टीकरण आवश्यक था। बयान की अनुपस्थिति यह संकेत देती है कि यह कार्रवाई प्रशासनिक स्तर पर संचालित रही — जो न्यायिक दृष्टि से कमजोर आधार है।
प्रेस बनाम सत्ता
यह घटना केवल एक कानूनी विवाद नहीं, बल्कि प्रेस स्वतंत्रता बनाम सत्ता नियंत्रण की नई लड़ाई है।
यदि हर आलोचनात्मक रिपोर्ट को “उगाही” कहकर दर्ज किया जाएगा, तो कोई भी पत्रकार सत्ता से सवाल नहीं पूछ पाएगा। लोकतंत्र में प्रेस “चौथा स्तंभ” नहीं रहेगा, बल्कि “सत्ता का सेवक” बन जाएगा। यही इस घटना का सबसे बड़ा खतरा है।
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न्यायिक समीक्षा की आवश्यकता
इस पूरे प्रकरण को लेकर अब न्यायपालिका की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।
हाई कोर्ट को यह स्पष्ट करना होगा कि:
- क्या BNSS और संविधान के प्रावधानों का पालन हुआ?
- क्या गिरफ्तारी जांच के लिए आवश्यक थी या केवल दमन का प्रतीक?
- क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनुचित नियंत्रण लगाया गया?
यदि अदालत यह पाती है कि गिरफ्तारी बिना उचित प्रक्रिया के हुई, तो यह “Illegal Detention” की श्रेणी में आएगी और यह अनुच्छेद 21 का सीधा उल्लंघन होगा।
लोकतंत्र की आत्मा पर खतरा
लोकतंत्र में सत्ता और सवाल — दोनों को अपनी-अपनी मर्यादाओं में रहना चाहिए।
पत्रकार का धर्म है सवाल पूछना; सत्ता का धर्म है उत्तर देना। यदि सवाल पूछने की कीमत गिरफ्तारी बन जाए, तो लोकतंत्र की आत्मा दम तोड़ देगी। यह केवल दो पत्रकारों का मामला नहीं, बल्कि उस संवैधानिक मूल्य प्रणाली का परीक्षण है जिस पर हमारा गणराज्य टिका है।
क्या आलोचना अपराध है?
यह सवाल हर नागरिक के मन में उठना चाहिए —
- क्या किसी जनप्रतिनिधि के विरुद्ध खबर चलाना अब अपराध बन गया है?
- क्या सूचना का अधिकार केवल सरकार के लिए है, जनता के लिए नहीं?
- क्या प्रेस अब सत्ता की सुविधा के अनुसार ही चलेगा?
इन सवालों के उत्तर सिर्फ अदालत से नहीं, समाज के विवेक से भी निकलने चाहिए।
संविधान की साख की परीक्षा
राजस्थान पुलिस की यह कार्रवाई सिर्फ कानूनी विवाद नहीं — यह भारतीय लोकतंत्र के संविधानिक संतुलन की परीक्षा है। यदि न्यायालय इस मामले में निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित नहीं करता, तो आने वाले समय में सत्ता विरोधी पत्रकारिता पूरी तरह अपराध घोषित हो जाएगी।
सच्चे लोकतंत्र की रक्षा तभी संभव है जब आलोचना को अपराध नहीं, सुधार का अवसर माना जाए।
अदालत को यह स्पष्ट करना होगा कि सत्ता से सवाल पूछना अपराध नहीं, बल्कि नागरिक का अधिकार है।
क्योंकि जब सवाल डर में बदल जाता है, तो लोकतंत्र मौन हो जाता है।