
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अमर प्रतीक और राष्ट्रगीत “वंदे मातरम्” ( Vande Mataram 150 years) की रचना को 150 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस अवसर पर देशभर में वर्षभर चलने वाले राष्ट्रीय उत्सव “वंदे मातरम्@150” का आयोजन किया जा रहा है। इस अभियान के तहत पूरे भारत में राष्ट्रभक्ति के स्वर गूंजेंगे — कहीं स्कूलों में सामूहिक गान होगा, कहीं देशभक्ति रैलियाँ निकलेंगी, और चारों दिशाओं में “वंदे मातरम्” के जयघोष के साथ भारत माता को नमन किया जाएगा।
यह (Vande Mataram 150 years) गीत सिर्फ एक रचना नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का स्वर है जिसने लाखों स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरित किया। परंतु, बहुत कम लोग यह जानते हैं कि इस गीत की उत्पत्ति, संघर्ष और स्वीकार्यता की यात्रा कितनी ऐतिहासिक और संवेदनशील रही है।
नैहाटी में जन्मी अमर धुन
वंदे मातरम्” (Vande Mataram 150 years) की रचना 7 नवंबर 1876 को बंगाल के महान साहित्यकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी। उन्होंने यह गीत पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के नैहाटी में अपने कांठालपाड़ा स्थित आवास पर लिखा था। यही स्थान आज एक संग्रहालय के रूप में संरक्षित है, जहाँ हर साल हजारों लोग श्रद्धा से “वंदे मातरम्” (Vande Mataram 150 years)की उत्पत्ति को नमन करने पहुंचते हैं।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म वर्ष 1838 में एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। उन्होंने हुगली कॉलेज और कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की। सन् 1857 में वे बी.ए. पास हुए और 1879 में उन्होंने कानून की डिग्री हासिल की। अपने पिता की तरह उन्होंने भी सरकारी सेवा में कार्य किया और 1891 में सेवानिवृत्त हुए।
उनकी व्यक्तिगत जीवन यात्रा भी उतनी ही संघर्षपूर्ण रही — मात्र 11 वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ, किन्तु शीघ्र ही उनकी पहली पत्नी का निधन हो गया। बाद में उन्होंने दूसरी शादी की और तीन बेटियों के पिता बने। परंतु उनके भीतर एक राष्ट्रवादी चेतना लगातार आकार ले रही थी।
गॉड सेव द क्वीन’ का विकल्प था यह गीत
न्नीसवीं सदी के भारत में ब्रिटिश शासन सर्वव्यापी था। हर सार्वजनिक अवसर पर अंग्रेजी राष्ट्रगीत ‘गॉड सेव द क्वीन’ गाया जाना अनिवार्य था। यह देखकर बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय को अत्यंत कष्ट होता था। उन्हें लगता था कि भारतवासियों के पास भी ऐसा कोई गीत होना चाहिए जो उनकी अपनी मिट्टी, उनकी अपनी संस्कृति और उनकी मातृभूमि की वंदना करे।
इसी भाव से उन्होंने 1876 में संस्कृत और बांग्ला के मिश्रण में यह गीत लिखा — “वंदे मातरम्।” आरंभ में इसके केवल दो पद रचे गए, जिनमें उन्होंने मातृभूमि को देवी दुर्गा के रूप में चित्रित किया। बंकिमचंद्र के शब्दों में — “सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम, शस्यश्यामलाम मातरम्।” इस गीत ने भारत माता की ममत्वमयी, परंतु शक्तिशाली छवि को उकेरा।
आनंदमठ और राष्ट्रवाद का उदय
1882 में बंकिमचंद्र का प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ प्रकाशित हुआ, जिसमें “वंदे मातरम्” को एक सन्यासी पात्र भवानंद द्वारा गाया गया है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि सन्यासी विद्रोह पर आधारित थी — जब बंगाल में हिंदू सन्यासी विदेशी शासन और अन्याय के खिलाफ विद्रोह करते हैं।
इस उपन्यास में जब “वंदे मातरम्” का स्वर गूंजता है, तो वह मात्र गीत नहीं रहता — वह एक आह्वान बन जाता है। इस धुन को यदुनाथ भट्टाचार्य ने स्वरबद्ध किया था, और यहीं से “वंदे मातरम्” (Vande Mataram 150 years) जन-जन तक पहुँचने लगा।
विवाद और धार्मिक विमर्श
“वंदे मातरम्” (Vande Mataram 150 years) में भारत को दुर्गा स्वरूपा माता के रूप में चित्रित किया गया है। यह चित्रण उस समय के हिंदू सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य से प्रेरित था। लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन में जब सभी धर्मों के लोग एकजुट हो रहे थे, तो कुछ मुस्लिम नेताओं को यह देवी स्वरूप की उपमा असहज लगी।
साथ ही, ‘आनंदमठ’ उपन्यास की पृष्ठभूमि मुस्लिम शासकों के विरोध से जुड़ी होने के कारण गीत पर सांप्रदायिक रंग चढ़ गया। यही कारण था कि स्वतंत्र भारत के राष्ट्रगान के चयन के समय इस गीत को लेकर राजनीतिक और धार्मिक विमर्श उत्पन्न हुआ।
नेहरू, टैगोर और राष्ट्रगीत पर फैसला
जब भारत की आजादी निकट आई, तो “वंदे मातरम्” को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकारने का प्रश्न उठा। उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस विषय पर रवींद्रनाथ ठाकुर से राय मांगी। टैगोर का मत था कि इस गीत की पहली दो पंक्तियाँ सार्वभौमिक और सर्वधर्मसंगत हैं, और इन्हें सार्वजनिक रूप से गाया जाना चाहिए।
1937 में नेहरू, मौलाना आजाद, सुभाषचंद्र बोस और आचार्य नरेंद्र देव की समिति ने भी यही सुझाव दिया कि गीत के केवल पहले दो पदों को ही सार्वजनिक गायन के लिए स्वीकार किया जाए।
अंततः, 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने यह निर्णय सुनाया कि “वंदे मातरम्” के पहले दो पदों को राष्ट्रगीत के रूप में मान्यता दी जाए, और उन्हें राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ के समान दर्जा दिया गया।
कांग्रेस अधिवेशनों से लेकर स्वतंत्रता के रण तक
“वंदे मातरम्” (Vande Mataram 150 years) का सार्वजनिक गान पहली बार 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में हुआ। इसके बाद यह गीत स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक बन गया।
1901 में चरनदास ने फिर से कांग्रेस अधिवेशन में इसे गाया। 1905 में बंग-भंग आंदोलन के दौरान जब ब्रिटिश सरकार ने बंगाल को दो भागों में बाँट दिया, तो “वंदे मातरम्” (Vande Mataram 150 years ) आंदोलन का नारा बन गया। सरला देवी चौधुरानी ने बनारस अधिवेशन में इसे अपने स्वर में गाया, और यह गीत जन-आंदोलन की आत्मा बन गया।
आंदोलन के दौरान लाखों लोगों ने “वंदे मातरम्” (Vande Mataram 150 years) को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया। ब्रिटिश पुलिस द्वारा जब भी इस गीत पर रोक लगाई जाती, स्वतंत्रता सेनानी सड़क पर उतर आते। यह गीत जेलों, आंदोलनों और क्रांतिकारी सभाओं में गूंजता रहा।
आकाशवाणी से पहली बार गूंजा था ‘वंदे मातरम्’
भारत की आजादी के ऐतिहासिक क्षण पर भी इस गीत का स्वर गूंजा। 14 अगस्त 1947 की रात संविधान सभा की पहली बैठक की शुरुआत “वंदे मातरम्” से हुई, और समापन “जन गण मन” के साथ हुआ।
अगले ही दिन, 15 अगस्त 1947 की सुबह 6:30 बजे, जब आकाशवाणी से पहली बार स्वतंत्र भारत की आवाज प्रसारित हुई, तो उद्घाटन “वंदे मातरम्” (Vande Mataram 150 years) से ही हुआ। यह क्षण पूरे देश के लिए भावनात्मक और गौरवपूर्ण था।
आजादी का अमर नारा
“वंदे मातरम्” (Vande Mataram 150 years) सिर्फ एक गीत नहीं, बल्कि वह नारा था जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को जीवंत रखा। बंगाल से लेकर बिहार, महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक यह गीत हर आंदोलन का हिस्सा बना।
महात्मा गांधी से लेकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस तक — सभी नेताओं ने इस गीत को अपने-अपने तरीके से आत्मसात किया। सुभाष बोस की आज़ाद हिंद फौज के सैनिक “वंदे मातरम्” का उद्घोष करते हुए दुश्मन के सामने जाते थे।
Vande Mataram 150 years : एक राष्ट्रीय पुनर्जागरण का उत्सव
आज जब “वंदे मातरम्” अपनी रचना के 150 वर्ष पूरे कर रहा है, तो केंद्र सरकार और राज्यों ने मिलकर इसे वर्षभर के राष्ट्रीय उत्सव के रूप में मनाने का निर्णय लिया है।
विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, सांस्कृतिक संस्थानों, संगीत समारोहों और ऐतिहासिक स्थलों पर “वंदे मातरम्” गान के विशेष आयोजन होंगे। साथ ही, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के जीवन और कृतित्व पर आधारित प्रदर्शनियाँ, नाटक और वृत्तचित्र पूरे देश में प्रदर्शित किए जाएंगे।
केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने इसे “जन-जन का उत्सव, मातृभूमि का महोत्सव” का नाम दिया है। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर “वंदे मातरम् चैलेंज” (Vande Mataram 150 years) शुरू किया गया है, जिसमें लोग अपने स्वर में गीत गाकर अपलोड कर सकेंगे।
एकता का प्रतीक और भविष्य का प्रेरणास्रोत
भले ही “वंदे मातरम्” (Vande Mataram 150 years) का जन्म एक सांस्कृतिक संदर्भ में हुआ था, लेकिन आज यह सभी भारतीयों के लिए समान रूप से प्रेरणास्रोत है। यह गीत जाति, धर्म और भाषा से परे उस एक भावना को व्यक्त करता है जो हर भारतीय के भीतर बसती है — मां के प्रति भक्ति और देश के प्रति निष्ठा।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने जो स्वर 1876 में नैहाटी के एक छोटे से कमरे में गढ़ा था, वह आज 150 वर्षों (Vande Mataram 150 years) बाद भी उतना ही जीवंत है। यह गीत हर बार गाते हुए वही सिहरन पैदा करता है जो किसी सैनिक को सीमा पर मातृभूमि की रक्षा करते हुए होती है।
वंदे मातरम् की गूंज सदियों तक
भारत के इतिहास में बहुत कम ऐसी रचनाएँ हुई हैं जो समय की सीमाएँ लांघकर अमर हो गईं। “वंदे मातरम्” उनमें से एक है। यह गीत हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता सिर्फ राजनैतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना का भी उत्सव है।
जब भी कोई भारतीय “वंदे मातरम्” (Vande Mataram 150 years) का उच्चारण करता है, तो उसके भीतर छिपा स्वाभिमान, प्रेम और कर्तव्यबोध जाग उठता है।
और शायद यही इस गीत का शाश्वत संदेश है,
मां की वंदना करो, क्योंकि वही तुम्हारी धरती है, वही तुम्हारा स्वर्ग।
वंदे मातरम्!